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________________ ५, ४, ७. ) कम्माणुओगद्दारे णयविभासणदा (३९ णिक्खेवत्थमभणिय णयविभासणा किमट्ठ कीरदे? ण, णयविभासणाए विणा मिक्खेवत्थस्स अवगमोवायाभावादो। उत्तं च उच्चारिदम्मि दु पदे णिक्खेवं वा कयं तु दळूण । अत्थं णयंति ते तच्चदो त्ति तम्हा णया भणिदा ।।१॥ तम्हा शिक्खेवत्थपरूवणादो पुव्वमेव णयविभासणा कीरदे। णेगम-ववहार-संगहा सव्वाणि ॥६॥ एत्थ इच्छंति ति अज्झाहारो कायवो। कधमेदेसु संगह-ववहारणएसु दव्वट्टिएसु भावणिक्खेवस्स संभवो? ण, दव्वादो भावस्स पुधाणुवलंभेण दव्वस्सेव भावत्तसिद्धीदो। उजसदो ट्रवणकम्मं णेच्छदि ॥ ७॥ कुदो? संकप्पवसेण अण्णस्स अण्णसरूवेण परिणामविरोहादो सव्वदव्वाणं सरिस शंका- निक्षेपार्थका कथन न करके पहले नयों द्वारा विशेष व्याख्यान किसलिये किया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नयों द्वारा विशेष व्याख्यान किये विना निक्षेपार्थका ज्ञान करानेका अन्य कोई उपाय नहीं है । कहा भी है उच्चारण किये गये पदमें जो निक्षेप होता है उसे देखकर वे अर्थका तत्त्वतः निर्णय करा देते हैं, इसलिये उन्हें नय कहा है ॥ १॥ इसलिये निक्षेपार्थका कथन करने के पहले ही नयोंका व्याख्यान किया जाता है। नैगम, व्यवहार और संग्रहनय सब कर्मोंको स्वीकार करते हैं ॥६॥ इस सूत्र में 'इच्छंति' पदका अध्याहार करना चाहिये। शंका- संग्रहनय और व्यवहार नय ये दोनों द्रव्याथिक नय हैं, इनमें भावनिक्षेप कसे सम्भव है ? ___समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्यसे भाव पृथक् नहीं पाया जाता, इसलिये द्रव्यके ही भावपना सिद्ध होता है। _ विशेषार्थ- वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्यको ही भाव कहते हैं । द्रव्यसे स्वतन्त्र भाव नहीं पाया जाता। इसीसे भावनिक्षेपको सग्रहनय और व्यवहारनयका विषय कहा है। अन्यत्र जहां भावनिक्षेप केवल पर्यायार्थिक नयका विषय कहा गया है, वहां द्रव्यकी प्रधानता न हो कर मात्र पर्याय विवक्षित की गई है ऋजुसूत्र नय स्थापना कर्मको स्वीकार नहीं करता ।। ७ ।। क्योंकि, स्थापनामें केवल संकल्पके द्वारा एक वस्तुको दूसरे रूप मान लिया जाता है किन्तु अन्यका अन्यरूपसे परिणमन मानने में विरोध आता है। सादृश्यके आधारसे स्थापना करने पर भी यथार्थतः समस्त द्रव्योंमें कहीं समानता नहीं पाई जाती । ॐ अ-ताप्रत्योः ‘अद्धं' इति पाठः । ॐ प्रतिषु 'तच्नगो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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