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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ४, २४.
दुमत्थवीयरायाणं ति भणिदे उवसंत खीणकसायाणं गहणं, अण्णत्थ छदुमत्थेसु चीरायत्ताणुवलंभादो । सजोगिकेवलीणं वा त्ति वयणेण छदुमत्थणिद्देसेण वीयरागेहिंतो ओसारिकेवलीणं गहणं कदं । एत्थ ईरियावहकम्मस्स लक्खणं गाहाहि उच्चदे । तं जहाअप्पं बादर मवुअं बहुअं ल्हुक्खं च सुक्किलं चेव । मंदं महव्वयं पिय सादब्भहियं च तं कम्मं ॥ २ ॥ गहिदमगहिदं च तहा बद्धमबद्धं च पुट्ठपुट्ठं च । उदिदादिदं वेदिदमवेदिदं चेव तं जाणे ॥ ३ ॥ णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदीरिदं चेव होदि गायव्वं । अणुदीरिदं ति य पुणो इरियावहलक्खणं एदं ॥ ४ ॥
एत्थ ताव पढमगाहाए अत्थो वुच्चदे । तं जहा - कसायाभावेण द्विदिबंधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयबिदियसमए चेव अकम्मभावं गच्छंतस्स जोगेणागदपोग्गलकम्मक्खंधस्स द्विदिविरहिदएसमए वट्टमाणस्स कालणिबंधणअप्पत्तदंसणादो इरियावह कम्ममप्पमिदि भणिदं । कम्मभावेण एग समयमवद्विदस्स कधमवट्ठाणाभावो भण्णदे ? ण,
'छदुमत्थवीयरायाणं' ऐसा कहनेपर उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीवोंका ग्रहण होता है, क्योंकि, अन्य छद्मस्थ जीवोंमें वीतरागता नहीं पायी जाती । 'सजोगिकेवलीणं' इस वचनसे जो छद्मस्थ निर्देशके साथ वीतराग होते हैं उनसे पृथग्भूत केवलियोंका ग्रहण किया है । अब यहां ईर्यापथकर्मका लक्षण गाथाओं द्वारा कहते हैं । यथा
वह ईर्यापथकर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रुक्ष है, शुक्ल है, मन्द अर्थात् मधुर है, महान् व्ययवाला है और अत्यधिक सातरूप है ॥ २ ॥
उसे गृहीत होकर भी अगृहीत, बद्ध होकर भी अबद्ध स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनुदित और वेदित होकर भी अवेदित जानना चाहिये ॥ ३ ॥
वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है और उदीरित होकर भी अनुदीरित है। इस प्रकार यह ईर्यापथकर्मका लक्षण है || ३ |
यहां सर्वप्रथम पहली गाथाका अर्थ कहते हैं। यथा- जो कषायका अभाव होनेसे स्थितिबन्धके अयोग्य है, कर्मरूपसे परिणत होनेके दूसरे समय में ही अकर्मभावको प्राप्त हो जाता है, और स्थितिबन्ध न होनेसे मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है; ऐसे योगके निमित्तसे आये हुए पुद्गल कर्मस्कन्ध में काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है । इसीलिये ईर्यापथकर्म अल्प है, ऐसा कहा है ।
शंका- जब कि ईयपथ कर्म कर्मरूपसे एक समय तक अवस्थित रहता है, तब उसके अवस्थानका अभाव क्यों बतलाया ?
* ताप्रती ' महवयं' इति पाठः । ताप्रतौ ' ट्ठिदिबंधापोड ( ह ) स्स इति पाठः । 4 कम्माभावएग-' इति पाठः ।
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अप्रतो 'द्विदिबंधापोदस्स', आप्रतो 'द्विदिबंधाषोडस', प्रतिषु ' अपत्त' इति पाठः । आ-ताप्रत्योः
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