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________________ १६० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. वेदगसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। मम्भादिअटुवस्साणमुवरि अधापवत्तकरणं अपुव्वकरणं च कादूण संजमं पडिवण्णो । तवोकम्मस्स आदी दिट्ठा। सव्वलहुमंतोमुहुत्तं संजमेण अच्छिदूण संजमासंजम पडिवज्जिय अंतरिदो । देसूणपुवकोडिं संजमासंजमेण गमिय कालं काढूण बावीससागरोवमटिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो समाणो पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ देसूणपुवकोडिं संजमासंजममणुपालेदूण पुणो वि बावीससागरोवमट्टिदियो देवो जादो। तत्थ कालं कादूण पुवकोडाउअमणुस्सो जादो । सव्वजहण्णंतोमुहुत्तावसेसे आउए संजमं पडिवण्णो । तवोकम्मस्स लद्धभंतरं । तदो कालं कादूण देवो जादो। एवं बेअंतोमुत्तब्भहियगम्भादिअटुवस्सेहि उणियाहि तीहि पुवकोडोहि सादिरेयाणि चोदालोसं सागरोवमाणितवोकम्मस्तंतरं किरियाकम्मस्संतरं केवचिरं कालादो होदि? गाणाजीवं पडुच्च गत्थि अंतरं एगजीनं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । तं जहा. एक्को अप्पमत्तो किरियाकम्मेण अच्छिदो। पुणो अपुव्वो होदूण अंतरिदो। तदो णिद्दा-पयलाणं बंधवोच्छेदअणंतर समए चेव मदो देवो जादो*। किरियाकम्मस्स अंतोमुत्तमेत्तं जहण्णण लद्धमंतरं होदि । उक्कस्सं णि अंतरमंतोमुत्तमेत्तं चेव । तं जहा- एक्को अप्पमत्तो किरियाकम्मेण अच्छिदो । अपुवो होदूण अतरियो । तदो सव्वदीहेहि कालेहि अपुव्व-अणियट्टि-सुहुम-उवसंतगुणट्ठाणाणि गमिय पुणो ओदरमाणो हुआ। गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण करके संयमको प्राप्त हुआ। तपःकर्मकी आदि दिखाई दी। अनन्तर सबसे लघु अन्तर्मुहुर्त काल तक संयमके साथ रहकर संयमासंयमको प्राप्त हो उसका अन्तर किया। फिर कुछ कम पूर्वकोटि काल संयमासंयमको साथ विताकर और मरकर बाईस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमासंयमके पालनकर फिर भी बाईस सागरको आयवाला देव हआ। वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयवाला मनष्य हआ और आयमें सबसे जघन्य अन्तर्महर्त काल शेष रहनेपर संयमको प्राप्त हआ । इस प्रकार तपःकर्मका अन्तर प्राप्त हो गया। अनन्तर मरकर देव हो गया। इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्षमें दो अन्तर्मुहुर्त मिलानेपर जो काल हो उससे न्यून तीन पूर्वकोटि अधिक चवालीस सागर तपःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त है। । यथाएक अप्रमत्त जीव क्रियाकर्मके साथ स्थित है। पूनः अपूर्वकरण होकर उसने उसका अन्तर किया। फिर निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्यच्छिति होनेके अनन्तर समयमें ही वह मरा और देव हो गया। इस तरह क्रियाकर्मका अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्य अन्तरकाल उपलब्ध होता है । उत्कृष्ट अन्तरकाल भी अन्तर्मुहुर्त ही होता है । यथा- एक अप्रमत्त जीव क्रियाकमके साथ स्थित है। पुनः अपूर्वकरण होकर उसने उसका अन्तर किया । अनन्तर सबसे दीर्घकाल द्वारा अपूर्वकरण, अनिवत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तमोह गुणस्थानोंको विताकर पुनः उतरते हुए __ काप्रती अण्णंतर- ' इति पाठः : *अ-आ-काप्रतिषु — मदो जादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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