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________________ कमाणुओगद्दारे पओकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १५९ , ५, ४ ३१ ) उट्टिदिएसु देवेसु उववण्णो । पुणो ओहिणाणेण सहिदपुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उबवण्णो । पुणो मणुस्सा उएणूण बावीस सामरोवमाउट्ठिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो समाणो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । पुणो मणुस्साउएण अण्णेहि अंतोमुहुत्तब्भहियगन्भादिअट्ठवस्सेहि य ऊणतीससागरोवमट्ठिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो संतो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ गन्भादिअदुवस्साणमुवरि तिष्णि विकरणाणि कादूण खइयसम्माइट्ठी जादो । पुणो देसूणपुव्वकोडी ओहिणाणेण सह संजममणुपादूण तेत्तीस सागरोवमट्ठिदियो देवो जादो । तत्तो चुदो समाणो पुव्वको डाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ एदिस्से पुव्वकोडीए सव्वजहणंतोमुहुतावसेसे खीणकसाओ जादो । तस्स खीणकसायस्म चरिमसमए पुव्वं णिज्जिण्णपरमाणूसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं होदि । एवमाभिणि-सुद-ओहिणाणाणं जवणउदिसागरोवमाणि देसूणदोहि पुव्वकोडीहि सादिरेयाणि आधाकम्मस्स उक्क - संतरं । एवमिरियावथकम्मस्स । णवरि णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण छम्मासा । ओहिणाणस्स वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमहुतं । तवकम्मस्स वि एवं चेव । णवरि तवोकम्मस्स अंतरं एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । उस्कवसेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूण पुव्वकोडीए सादिरेयाणि अधवा, तवोकम्मस्स चोदालीसं सागरोवमाणि वेसूणतीहि पुव्वकोडीहि सादिरेयाणि उक्कस्समंतरं । तं जहा एक्को देवो वा णेरइओ वा पूर्वकोटिके आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । पुनः मनुष्यायुसे न्युन बाईस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । पुनः मनुष्या से न्यून तथा अन्य गर्भसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षकी आयुसे न्यून तीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां गर्भसे लेकर आठ वर्ष होनेपर तीनों करणोंको करके क्षायिकसम्यदृष्टि हो गया । पुनः कुछ कम पूर्वकोटि काल तक अवधिज्ञानके साथ संयमका पालनकर तेतीस सागरकी स्थितिवाला देव हो गया । पुनः वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्य उत्पन्न हुआ। वहां इस पूर्वकोटि में सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर क्षीणकषाय हो गया। उस क्षीणकषाय के अन्तिम समय में पहले निर्जीण हुए परमाणुओं के बन्धको प्राप्त होनेपर अधः कर्मका अन्तर प्राप्त होता है। इस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों के कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक निन्यानबे सागर अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकार ईर्यापथकर्मका अन्तरकाल होता है । इतनी विशेषता है कि इसका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । किन्तु अवधिज्ञानके उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तपःकर्मका अन्तरकाल भी इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि तपःकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि अधिक तीस सागर है । अथवा तपःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पूर्वकोटि अधिक चवालीस सागर है। यथा- एक देव या नारकी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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