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पर्या अणुओगद्दारे गोदपय डिपरूवणा
( ३८७
तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ असंखेज्ज
५,५, १३४. )
गुणाओ ।। १३२ ।। गमं ।
अगुरुअलहुअणामं उवघादणामं परघावणामं उस्सासणामं आदावणामं उज्जोवणामं विहायगविणामं तसणामं थावरणामं बाबरणामं सुहुमणामं पज्जत्तणामं अपज्जत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साधारणसरीरणामं थिरणामं अथिरणामं सुहणामं असुहणामं सुभगणामं दूभगणाम सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदेज्जणामं अणावेज्जणा मं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं णिमिणणामं तित्थयरणामं ।। १३३ ॥
एवासि पयडीणं उत्तरोत्तरपयडिपरूवणा जाणिदूण कायव्वा । ण च एदालिमुत्तरोत्तरपयडीओ नत्थि, पत्तेयसरीराणं धव-धम्ममणादीणं साहारणसरीराणं थूहल्लयादीणं बहुविहस र गमणादीणमुवलंभादो ।
मूलय
गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥ १३४ ॥ उच्च-नीचं गमयतीति गोत्रम् । सेसं सुगमं ।
उनसे तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां असंख्यातगुणी हैं । १३२ । यह सूत्र सुगम है ।
अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, परघातनाम, उच्छवासनाम, आतापनाम, उद्योतनाम, विहायोगतिनाम, नाम, स्थावरनाम, बादरनाम, सूक्ष्मनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, साधारणशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशु - भनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यशः किर्तिनाम, अयशकिर्तिनाम, निर्माणनाम और तीर्थंकरनाम ॥ १३३ ॥
इन प्रकृतियोंकी उत्तरोत्तर प्रकृतियोंका कथन जानकर करना चाहिए। इनकी उत्तरोत्तर प्रकृतियां नहीं हैं, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, धव और धम्ममन आदि प्रत्येकशरीर; मूली ओर थूहर आदि साधारणशरीर; तथा नाना प्रकार के स्वर और नाना प्रकारके गमन आदि उपलब्ध होते हैं ।
गोत्रकर्मी कितनी प्रकृतियां हैं ? ॥ १३४ ॥
जो उच्च और नीचका ज्ञान कराता है उसे गोत्र कहते हैं। शेष कथन सुगम है ।
षट्ख. जी. चू. १, ४२-४४
ताप्रतौ ' ववधम्माणादीणं ' इति पाठः ।
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अप्रतो' धवधम्माणादीर्ण', आ-काप्रत्यो: 'धुवधम्माणादीनं '
काप्रती ' उच्चं णीच ' इति पाठः [
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