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________________ ३८८ ) छत्खंडागमे वग्गणा-खंड (५,५, १३५ गोवस कम्मस दुवे पयडीओ उच्चागोदं चेव णीचागोंद चेव एवडियाओ पयडीओ ॥ १३५ ॥ : उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापारः ? न तावद् राज्यादिलक्षणायां सम्पदि, तस्या: सद्वेद्यतः समुत्पत्तेः नापि पंचमहाव्रतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्ययोग्येषु उच्चैर्गोत्रस्य उदयाभावप्रसंगात् । न सम्यग्ज्ञानोत्पतौ व्यापारः, ज्ञानावरण क्षयोपशमसहाय सम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्तेः । तिर्यग्--नरकेष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयः स्यात्, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्त्वात् । नादेयत्वे यशसि सौभाग्यं वा व्यापार:, तेषां नामतः समुत्पत्तेः । नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तौ काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्त्वात् विड्-ब्राह्मणसाघुष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात् । न सम्पन्नेभ्यो जीवो तत्तौ तद्व्यापारः, म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चैर्गोत्रोदयप्रसंगात् । नातिभ्यः समुत्पत्तौ तद्व्यापारः देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रोदयस्यासत्त्वप्रसंगात् नाभेयस्य * नीचैर्गोत्रतापत्तेश्च । ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रम् । तत एव न तस्य कर्मत्वमपि । तदभावे न नीचंर्गोत्रमपि, द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात् । ततो गोत्रकर्माभाव गोत्रकर्मकी दो प्रकृतियां हैं - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां हैं ।। १३५ ॥ शंका - उच्चगोत्रका व्यापार कहां होता है ? राज्यादि रूप सम्पदाकी प्राप्ति में तो उसका व्यापार होता नहीं है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति सातावेदनीय कर्मके निमित्तसे होती है । पांव महाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यता भी उच्चगोत्रके द्वारा नहीं की जाती हैं, क्योंकि, ऐसा माननेपर जो सब देव और अभव्य जीव पांच महाव्रतोंको नहीं धारण कर सकते है, उनमें उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति में उसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, उसकी उत्पत्ति ज्ञानावरण के क्षयोपशमसे सहकृत सम्यग्दनसे होती है । तथा ऐसा माननेपर तियंचों और नारकियोंके भी उच्चगोत्रका उदय मानना पडेगा, क्योंकि, उनके सम्यग्ज्ञान होता है । आदेयता, यश और सौभाग्यकी प्राप्तिमें इसका व्यापार होता है; यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इनकी उत्पत्ति नामकर्म के निमित्तसे होती है । इक्ष्वाकु कुल आदिकी उत्पत्ति में भी इसका व्यापार नहीं होता, क्योंकि, वे काल्पनिक हैं, अतः परमार्थसे उनका अस्तित्व ही नहीं हैं। इसके अतिरिक्त वैश्य और ब्राह्मण साधुओं में उच्चगोत्रका उदय देखा जाता है । सम्पन्न जनोंसे जीवों की उत्पत्ति में इसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, इस तरह तो म्लेच्छराज से उत्पन्न हुए बालकके भी उच्च गोत्रका उदय प्राप्त होता है। अणुव्रतियोंसे जीवोंकी उत्पत्ति में उच्चगोत्रका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर औपपादिक देवों में उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है, तथा नाभिपुत्र नीचगोत्री ठहरते हैं। इसलिए उच्चगोत्र निष्फल है, और इसीलिए उसमें कर्मपना भी घटित नहीं होता । उसका अभाव होनेपर नीचगोत्र भी नहीं रहता, क्योंकि, वे दोनों एक दूसरे के अविनाभावी हैं। इसलिए गोत्रकर्म है ही नहीं ? अ आ-काप्रतिषु ' नाभेयश्न षट्ख. जी चू १,४५. ताप्रती ' ज्ञानावरण इति पाठ 1 ' ताप्रतीन' भेयश्च (स्य ) ' इति पाठ: 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International , www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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