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________________ पयडिअणुओगद्दारे आभिणिबोहियणाणपरूवणा (२३९ कदाचित्तद्रसावगतेः, प्रदीपस्वरूपग्रहणकाल एव कदाचित्तत्स्पर्शोपलम्भात्, आहितसंस्कारस्य कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तद्रसादिप्रत्ययोपलम्भाच्च। एतत्प्रतिपक्षः उक्तप्रत्ययः । निःसतोक्तयोः को भेदश्चेत- न, उक्तस्य निःसतानिःसृतोभयरूपस्य निःसतेनैकत्वविरोधात् । नित्यत्वविशिष्टस्तम्भादिप्रत्ययः स्थिरः । न च स्थिरप्रत्ययः एकान्त इति प्रत्यवस्थातुं युक्तम्, विधि-निषेधाविद्वारेण अत्रापि अनेकान्तविषयत्वदर्शनात् । विद्युत्प्रदीपज्वालादौ उत्पाद-विनाशविशिष्टवस्तुप्रत्ययः अध्रुवः । उत्पादव्यय-ध्रौव्य विशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अध्रुवः, ध्रुवात्पृथग्भूतत्वात् । मनसोऽनुक्तस्य को विषयश्चेत्-अदृष्टमश्रुतमननुभूतं च । न च तस्य तत्र वृत्तिरसिद्धा, अन्यथा उपदेशमन्तरेण द्वादशांगश्रुतावगमनानुपपत्तेः । इदानीमुच्चार्य द्वादश प्रत्यया अवबोध्यन्ते । तद्यथा- चक्षुषा बहुमवगृह णाति १। चक्षुषा एकमवगृह णाति २ । चक्षुषा बहुविधमवगृह णाति ३। चक्षुषा एकविधमवगृह णाति ४ । चक्षुषा क्षिप्रमवगृह णाति ५ । चक्षुषा अक्षिप्रमवगृह णाति ६ । चक्षुषा अनिःसृतमवगृह णाति ७ । चक्षुषा निःसृतमवगृह णाति ८ । चक्षुषा अनुक्तमवगृह णाति ९ । चक्षुषा उक्तमवगृह णाति १०। कदाचित् उसके रसका ज्ञान हो जाता हैं, प्रदीपके स्वरूपका ग्रहण होते समय ही कदाचित् उसके स्पर्शका ज्ञान हो जाता है, और संस्कारसंपन्न किसीके शब्दश्रवणके समय ही उस वस्तुके रसादिका ज्ञान भी देखा जाता है । इसका प्रतिपक्षभूत उक्तप्रत्यय है । शंका- निःसृत और उक्त में क्या भेद है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उक्तप्रत्यय निःसत और अनिःसृत उभयरूप होता है, इसलिये उसे निःसृतसे अभिन्न मानने में विरोध आता है। नित्यत्वविशिष्ट स्तम्भ आदिका ज्ञान स्थिर अर्थात् ध्रुवप्रत्यय है । और स्थिरज्ञान एकान्तरूप है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है; क्योंकि, विधि-निषेधके द्वारा यहांपर भी अनेकान्तकी विषयता देखी जाती है। बिजली और दीपककी लौ आदिमें उत्पाद-विनाशयुक्त वस्तुका ज्ञान अध्रुवप्रत्यय है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त वस्तुका ज्ञान भी अध्रुवप्रत्यय हैं; क्योंकि, यह ज्ञान ध्रुवज्ञानसे भिन्न है। शंका- मनसे अनुक्तका विषय क्या है ? समाधान- अदृष्ट, अश्रुत और अननुभूत पदार्थ । इन पदार्योंमें मनकी प्रवृत्ति असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा नही माननेपर उपदेशके विना द्वादशांग श्रुतका ज्ञान नहीं बन सकता है। अब बारह प्रकारके प्रत्ययोंका उच्चारण करके ज्ञान कराते हैं । यथा- चक्षुके द्वारा बहुतका अवग्रहज्ञान होता है १ । चक्षुके द्वारा एकका अवग्रहज्ञान होता है २ । चक्षुके द्वारा बहुविधका अवग्रहज्ञान होता है ३ । चक्षुके द्वारा एकविधका अवग्रहज्ञान होता है ४। चक्षुके द्वारा क्षिप्रका अवग्रहज्ञान होता है ५ । चक्षुके द्वारा अक्षिप्रका अवग्रहज्ञान होता है ६ । चक्षुके द्वारा अनिःसृतका अवग्रहज्ञान होता है ७ । चक्षुके द्वारा निःसृतका अवग्रहज्ञान होता है ८ । चक्षुके द्वारा अनुक्तका अवग्रहज्ञान होता है ९ । चक्षुके द्वारा उक्तका अवग्रहज्ञान होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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