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२०८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
(५, ५, १९. ण अंतरंगउवजोगो वि सायारो, कत्तारादो दव्वादो पुह कम्माणुवलंभादो । ण च दोण्णं पि उवजोगाणमेयत्तं, बहिरंगंतरंगत्थविसयाणमेयत्तविरोहादो। ण च एदम्हि अत्थे अवलंबिज्जमाणे सायारअणायार उवजोगाणमसमाणत्तं, अण्णोणभेदेहि पुहाणमसमाणत्तरविरोहादो। सामण्णग्गहणं सणं, विसेसग्गहणं णाणमिवि किण्ण घप्पदे ? ण, सम्वत्थ सम्वद्धमभयणयविसयावट्ठभेण विणा सव्वोवजोगाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण च कमेण तपवट्ठभणं जुज्जदे, संकराभावप्पसंगादो । किं च-ण च एवं लक्खणं जज्जदे, केवलिम्हि व छदुमत्थेसु वि णाणा-दसणाणमक्कमवृत्तिप्पसंगादो। एदस्स सणस्स आवारयं कम्मं सणावरणीयं । जीवस्स सुह-दुक्खुप्पाययं कम्मं वेयणीयं णाम । किमेत्थ सुहमिदि घेप्पदे ? दुक्खुवसमो सुहं णाम । दुक्खक्खओ सुहुमिदि किण्ण घेप्पदे ? ण, तस्स कम्मक्खएणुप्पज्जमाणस्स जीवसहावस्त कम्मणिदत्तविरोहादो । विमोहसहावं जीवं मोहेदि ति मोहणीयं । नहीं है, क्योंकि, इसमें कर्ता द्रव्यसे पृथग्भूत कर्म नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि दोनों उपयोग एक हैं सो भी बात नहीं है, क्योंकि, एक बहिरंग अर्थको विषय करता है और दूसरा अन्तरंग अर्थको विषय करता है, इसलिए इन दोनोंका एक मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि इस अर्थके स्वीकार करनेपर साकार और अनाकार उययोगमें समानता नहीं रहेगी, सो भी बात नहीं है; क्योंकि परस्परके भेदसे ये अलग हैं इसलिये इनमें सर्वथा असमानता मानने में विरोध आता है।
शंका - यहां सामान्य ग्रहणका नाम दर्शन है और विशेष ग्रहणका नाम ज्ञान है, ऐसा अर्थ क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान - नहीं, क्योंकि सब क्षेत्र और सब कालमें उभय नयके विषयके आलम्बनके विना सब उपयोगोंकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । यदि कहा जाय कि क्रमसे सामान्य और विशेषका अवलम्बन बन जावेगा, सो भी बात नहीं है, क्योंकि एसा माननेपर संकरका अभाव प्राप्त होता है।
दूसरे यह लक्षण बनता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर केवलीके समान छद्मस्थोंके भी ज्ञान और दर्शनकी अक्रम वृत्तिका प्रसंग आता है । इस दर्शनका आवारक कर्म दर्शनावरणीय है।
जीवके सुख और दुःखका उत्पादक कर्म वेदनीय है। शंका - प्रकृतमें सुख शब्दका क्या अर्थ लिया गया है ? समाधान - प्रकृतमें दुःखके उपशम रूप सुख लिया गया है। शंका - दुःखका क्षय सुख है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान - नहीं, क्योंकि वह कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है । तथा वह जीवका स्वभाव है, अतः उसे कर्मजनित मानने में विरोध आता है । __मोहरहित स्वभाववाले जीवको जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है । जो भव धारण
*प्रतिषु ' दन्वेण फट्ट कम्माणव- ' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'फट्टाणमसमागत्त-' इति पाठः । ॐ का-ताप्रत्योः 'दुक्खुप्पाइयं ' इति पाठः।
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