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________________ ५, ५,२१. ) अणुओगद्दारे कम्मदव्वपय डिपरूवणा ( २०९ भवधारणमेदि कुणदि त्ति आउअं । णाणा मिणोदि त्ति णामं । गमयत्युच्च - नीचमिति गोत्रम् | अन्तरमेति गच्छतीत्यन्तरायम् । एवमेदाओ कम्मस्स अट्ठेव य पयडीओ । ण अण्णाओ, अणुवलंभादो । णाणावरणीयस्स उत्तरपयडिपमाणपरूवणट्टमुत्तरमुत्तं भणदि -- गाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ।। २० । एवं पुच्छासुतं सुगमं । णाणावरणीयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ - आभिणिबोहियनाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि ॥ २१ ॥ जीवम्मि आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मणपज्जवणाणं केवलणाणमिदि पंच णाणाणि । तत्थ अहिमुह - नियमिदत्थस्स बोहणमाभिणिबोहियं णाम गाणं । को अभिमुत्थो ? इंदिय गोइंदियाणं गहणपाओग्गो । कुदो तस्स नियमो ? अण्णत्थ अप्पबुसीदो। अत्थि दियालोगुवजोगेहिंतो चेव माणुसेसु रूवणाणुप्पत्ती । करता है वह आयु कर्म है । जो नानारूप बनाता है वह नामकर्म है । जो उच्च-नीचका ज्ञान कराता है वह गोत्रकर्म है। जो बीचमें आता है वह अन्तराय कर्म है । इस प्रकार कर्मकी ये आठ हीं प्रकृतियां हैं, अन्य नहीं हैं; क्योंकि अन्य प्रकृतियां उपलब्ध नहीं होती । ज्ञानावरणीयकी उत्तर प्रकृतियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? ॥ २० ॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है । ज्ञानावरणीय कर्मको पांच प्रकृतियां हैं- आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मन:पर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । २१ । आभिनिबोधिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच ज्ञान हैं । उनमें अभिमुख और नियमित अर्थका ज्ञान होना आभिनिबोधिक ज्ञान है । शंका - अभिमुख अर्थ क्या है ? समाधान - इन्द्रिय और नोइन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने योग्य अर्थका नाम अभिमुख अर्थ है । शंका • उसका नियम कैसे होता है ? समाधान - अन्यत्र उनकी प्रवृत्ति न होनेसे । अर्थ, इन्द्रिय, आलोक और उपयोगके द्वारा ही मनुष्यों के रूपज्ञानकी उत्पत्ति होती है । अर्थ, इन्द्रिय और उपयोगके द्वारा ही रस, * अप्रतौ ' अ पडीओ तो 'अट्ठ पडीओ ', काप्रती ' अट्ठेय पयडीओ, इति पाठः । अभिमुहणियमियबोहण आभिणिबोहियमणिदिइंदियजं 1 बहुयाहि उग्गहाहि य कयछत्तीसा तिसद भेदा 11 जप. १३-५६. ॐ आ-काप्रत्योः ' अप्पत्तीदो' ताप्रती 'अवु ( ण ) प्पत्तीदो' इति पाठ 1अप्रती झावाणुप्पत्ती', काप्रतो ' रूवेणाणुप्पत्ती' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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