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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
अस्थिदिय-उवजोगेहितो-चेव रस-गंध-सद्द-फासणाणुप्पत्ती। विट्ठ-सुवाणभवट्ठ-मणेहितो णोइंदियणाणुप्पत्ती एसो एत्थ णियमो । एदेण णियमेण अभिमुहत्थेसु जमुप्पज्जदिणाणं तमाभिणिबोहियणाणं णाम । तस्स आवरणमाभिणिबोहियणाणावरणीयं। ___ मदिणाणेण गहिदत्थादो जमुप्पज्जदि अण्णेसु अत्थेसु णाणं तं सुदणाणं णाम । धूमादो उपज्जमाणअग्गिणाणं, णदीपूरजणिदउवरिविट्ठिविण्णाणं, देसंतरसंपत्तीए जणिददियरगमणविसयविण्णाणं, सद्दादो सहत्थप्पण्णणाणं च सुदणाणमिति भणिदं होदि। सुदणाणादो जमुप्पज्जदि णाणं तं पि सुदणाणं चेव। ण च मदिपुव्वं सुदमिच्चेदेण सुत्तँण, सह विरोहो अत्थि, तस्स आदिष्पत्ति पडुच्च परविदत्तादो । कधं सहस्स सुदववएसो? कारणे कज्जुवयारादो। एइंदिएसु सोदणोइंदियवज्जिएसु कधं सुदणाणुप्पत्ती ? ण, तत्थ मणेण विणा वि जादिविसेसेण लिगिविसयणाणुप्पत्तीए विरोहाभावादो। एक्स्स सुदस्स आवारयं कम्मं सुदणाणावरणीयं णाम ।
अवाग्धानादवधिः । अथवा अधो गौरवधर्मत्वात् पुद्गलः अवाङ नाम, तं दधाति
मन्ध, शब्द और स्पर्श ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थ तथा मनके द्वारा नोइन्द्रियज्ञानकी उत्पत्ति होती है; यह यहां नियम है । इस नियमके अनुसार अभिमुख अर्थोंका जो ज्ञान होता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान है और उसका आवारक कर्म आझिनिबोधक ज्ञानावरणीय है ।
___ मतिज्ञानके द्वारा ग्रहण किये गये अर्थके निमित्तसे जो अन्य अर्थोका ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । धूमके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अम्निका ज्ञान, नदीपूरके निमित्तसे उत्पन्न हुआ ऊपरी भागमें वृष्टिका ज्ञान, देशान्तरकी प्राप्तिके निमित्तसे उत्पन्न हुआ सूर्यका गमनविषयक विज्ञान और शब्दके निमित्तसे उत्पन्न हुआ शब्दार्थका ज्ञान श्रुतज्ञान है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। श्रुतज्ञानके निमित्तसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी श्रुतज्ञान ही है। फिर भी ‘मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है ' इस सूत्रके साथ विरोध नहीं आता, क्योंकि उक्त सूत्र श्रुतज्ञानको प्रारम्भिक प्रवृत्तिकी अपेक्षासे कहा गया है।
शंका - शब्दको श्रुत संज्ञा कैसे मिल सकती है ? समाधान - कारणमें कार्यके उपचारसे ।
शंका - एकेन्द्रिय जीव श्रोत्र और नोइन्द्रियसे रहित होते हैं, उनके श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति कैसे हो सकती ?
समाधान - नहीं, क्योंकि वहां मनके विना भी जातिविशेषके कारण लिंगी विषयक ज्ञानकी उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता।
इस श्रुतका आवारक कर्म श्रुतज्ञानावरणीय कर्म
नीचे के विषयको धारण करनेवाला होनेसे अवधि कहलाता हैं। अथवा नीचे गौरवधर्मवाला होनेसे पुद्गलकी अवाग संज्ञा है, उसे जो धारण करता है अर्थात जानता है वह अवधि है।
xताप्रती '-मणेहितो ' इति पाठः । .त. सू. १-२०.
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