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________________ पयडिअणुओगद्दारे कम्मदव्वपयडिपरूवणा (२०७ अंतब्भदेण जीवेण सह उवजोगस्स संबंधाणववत्तीदो। वा जीवेणेव अरादीहि वि उवजोगस्स संबंधो होज्ज, दिसेसाभावादो। जीवोवजोगाणमस्थि संबंधो, संबंधणिबंधणमधुपच्चयंत-उवजोगवंत-सद्दाभिधेयत्तण्णहाणुववत्तीवो? ण, रूविणो पोग्गला इच्चेवमाईसु णिच्चजोगे वि मधुपच्चयस्स उप्पत्तिदसणादो। सो च उवजोगो सायारो अणायारो ति दुविहो । तत्थ सायारो णाणं, तदावारयं कम्मं णोणावरणीयमिदि सिद्धं। ___अणायारुवजोगो दसणं । को अणागारुवजोगो णाम ? सागारुवजोगादो अण्णो। कम्म-कत्तारभावो आगारो, तेण आगारेण सह वट्टमाणो उवजोगो सागारो त्ति । सागारुवजोगेण सव्वो विसईकओ, तदो विसयाभावादो अणागारुवजोगो णत्थि त्ति सणिच्छयं णाणं सायारो, अणिच्छयमणागारो त्ति ण वोत्तुं सक्किज्जदे, संसय-विवज्जय अणज्झवसायाणमणायारत्तप्पसंगादो। एदं पिणत्थि, केवलिम्हि दसणाभावप्पसंगादो ? ण एस दोसो, अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स अणायारत्तब्भवगमादो। प्राप्त हुए जीवके साथ उपयोगका सम्बन्ध नहीं बन सकता है । फिर भी यदि सम्बन्ध माना जाता है तो जीवके समान आकाश आदिके साथ भी उपयोगका सम्बन्ध हो जायगा, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। शंका - जीव और उपयोगका सम्बन्ध है, अन्यथा सम्बन्धका कारण मतुप्-प्रत्ययान्त 'उपयोगवान्' शब्दका वह वाच्य नहीं बन सकता ? समाधान - नहीं, क्योंकि 'रूपिण. पुद्गला: ' इत्यादिमें नित्ययोगके अर्थमें भी मतुप प्रत्ययकी उत्पत्ति देखो जाती है ।। वह उपयोग दो प्रकारका है- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । उनमेंसे साकार उपयोगका नाम ज्ञान है और उसको आवरण करनेवाला कर्म ज्ञानावरणीय है, यह सिद्ध होता है। तथा अनाकार उपयोगका नाम दर्शन है। शंका - अनाकार उपयोग क्या है ? समाधान - साकार उपयोगसे अन्य अनाकार उपयोग है। कर्म-कर्तृभावका नाम आकार है । उस आकारके साथ जो उपयोग रहता है उसका नाम साकार है । शंका - साकार उपयोगके द्वारा सब पदार्थ विषय किये जाते हैं, अतः विषयका अभाव होनेके कारण अनाकार उपयोग नहीं बनता, इसलिए निश्चयसहित ज्ञानका नाम साकार उपयोग है और निश्चयरहित ज्ञानका नाम अनाकार उपयोग है। यदि ऐसा कोई कहे तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायको अनाकारता प्राप्त होती है । यदि कोई कहे कि ऐसा ही हो जाओ, सों भी बात नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर केवली जिनके दशनका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अन्तरङगको विषय करनेवाले उपयोगको अनाकार उपयोग रूपसे स्वीकार किया है । अन्तरंग उपयोग विषयाकार होता है, यह बात भी *ताप्रती 'अण्ण ' इति पाठः 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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