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________________ २०६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड कम्मपयडी एवं दंसणावरणीय-धेयणीय-मोहणीय-आउअ-णामागोद-अंतराइयकम्मपयडी चेदि ॥ १९ ॥ ___ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयं । बाह्यार्थपरिच्छेदिका जीवशक्तिमा॑नम् । तच्च जीवस्य यावद् व्यभावी गणः, तेन विना जीरस्य अभावप्रसंगात् । जाणविरहियाणं पोग्गलागासदव्वाणं व जाणविरहियजीवदव्वस्स अत्थित्तं किण्ण होज्ज ? ण, जीवदव्वस्स अजीवदव्वेहितो वइसेसियगणाभावेण पुधत्तविरोहादो. ण ताव ओगाहणलक्खणं जीवदव्वं, तस्सागासेण सह एयत्तप्पसंगादो। ण अण्णदव्वाणं गमणागमणहउअं, तस्स धम्मदवे अंतब्भावादो। णावट्ठाणहेउअं, अधम्मदवे तस्स अंतब्भावप्पसंगादो। ण अण्णदव्वाणं परियट्टणकारणं, कालदव्वत्तप्पसंगादो। ण रूव-रस-गंधफासवंतत्तकओ विसेसो, तस्स पोग्गलदम्वत्तप्पसंगादो । तम्हा जीवेण उवजोगलक्खणेण होदव्वमिदि । उवजोगमंतो जीवो, उवजोगवज्जिओ अजीवो त्ति किण्ण घेप्पदे ? ण उवजोगेण विणा आगासादिसु ज्ञानावरणीय कर्मप्रकृति, इसी प्रकार दर्शनाबरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मप्रकृति ॥ १९ ॥ जो ज्ञानको आवृत करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म है। बाह्य अर्थका परिच्छेद करनेवाली जीवकी शक्ति ज्ञान है । वह जीवका याबद्रव्य भावी गुण है, क्योंकि, उसके विना जीवके अभावका प्रसंग आता है । शंका - ज्ञानरहित पुद्गल और आकाश द्रव्योंके समान ज्ञानरहित जीवका अस्तित्व क्यों नहीं होता? ____समाधान- नहीं, क्योंकि, विशेष गुणोंके विना जीव द्रव्यको अजीव द्रव्योंसे पृथक मानने में विरोध आता हैं । जीवका लक्षण अवगाहना मानना तो ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर आकाश द्रव्यसे जीव द्रव्यका अभेद प्राप्त होता है । जो अन्य द्रव्योंके गमनागमनमें हेतु है वह जीव द्रव्य है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा माननेपर उसका धर्म द्रव्यमें समावेश हो जाता है । जो अवस्थानका कारण है वह जीव द्रव्य है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, उसका अधर्म द्रव्य में अन्तर्भाव प्राप्त होता है जो अन्य द्रव्योंके परिवर्तनमें कारण है वह जीव द्रव्य है, यह वचन भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर उसके कालद्रव्यत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाला होनेसे इनकी अपेक्षा जीवमें विशेषता आती है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर उसके पुद्गलद्रव्यपनेका प्रसंग आता है । इसलिये जीवको उपयोग लक्षणवाला होना चाहिये ।। शंका- उपयोगवाला जीव है और उपयोगसे रहित अजीव है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर उपयोगके विना आकाश आदिमें अन्तर्भावको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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