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________________ ( १८५ ५, ४, ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीनं अप्पाबहुअं fafरयाकम्मपदेसदा असंखेज्जगुणा । एवं तसदोण्णि- पंचमणजोगि- पंचवचिजोगिचक्खुद सिणित्ति वत्तव्वं । आहार - आहार मिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा पओअकम्म- तवोकम्मकिरियाकम्मपदे सट्टदाओ 1 आधाकम्मपदेसदा अनंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसदा अनंतगुणा । वेदावादेण इत्थि पुरिसवेदेसु सव्वत्थोवा तवोकम्मपदेसदृदा किरियाकम्मपदेसट्ठदा असंखंज्जगुणा । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मपदेसदा अनंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसवा अनंतगुणा । णवंसयवेदे मूलोघो । वरि इरियावह कम्मपदेसदा णत्थि । अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा पओअकम्मपदेसदा । तवोकम्मपदा विसेसाहिया केत्तियमेत्तेन ? अजोगिपदेसदृदामेत्तेण । आधाकम्मपदेसदा अनंतगुणा । इरियावथ कम्मपदेसदा अनंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसदृदा विसेसाहिया । कसायाणुवादेण चदुष्णं कसायाणं णवंसयवेदभंगो | अकसाईणमवगदवेदभंगो । एवं केवलणाणि - जहावखाद केवलदंसणि त्ति वत्तव्वं । णाणाणुवादेण आभिणिसुद-ओहिणाणीसु सव्त्रत्थोवा तवोकम्मपदेसदृदा किरियाकम्मपदेसदृदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्मपदेसदा विसेलाहिया । केत्तियमेत्तेन ? अपुव्व-अणियट्टि सुहुम-उवसंतखोकसायाणं जीवपदेसमेतेण । आधाकम्मपदेसट्टदा अनंतगुणा । इरियावथकम्मवचनयोगी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है इससे अधः कर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक हैं । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यात - गुणी है । इससे अधः कर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । नपुंसकवेद में मूलोघ के समान है । इतनी विशेषता है कि यहां ईर्यापथकर्म की प्रदेशार्थता नहीं है । अपगतवेदवालों में प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है इससे तपःकर्म की प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगी जीवोके जितने प्रदेश हैं उतनी अधिक है । इससे अधः कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे ईर्ष्यापथकर्म की प्रदेशार्थता अनन्त गुणी है। इससे समवधानकर्म की प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । । कषायमार्गणा अनुवादसे चारों कषायवालों का कथन नपुंसकवेदके समान है । अकषायवालोंका कथन अपगतवेदवालोंके समान है । इसी प्रकार केवलज्ञानी, यथासंख्यात और केवलदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । ज्ञानमार्गंणाके अनुवादसे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्म की प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय जीवोंके प्रदेशोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है । इससे अधः कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी हैं । इससे ईर्ष्यापथकर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्म की प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । अ आ-काप्रतिषु 'जहाक्खाद० एवं केवलदंसणि ' इति पाठ: ] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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