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________________ १८४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. अणंतगुणा । पओअकम्मपदेसट्टदा अणंतगणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । असंजदतिणिलेस्सा त्ति एवं चेव वत्तव्वं । पंचिदियतिरिक्खतिगम्मि सव्वत्थोवा किरियाकम्मपदेसट्टदा । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखंज्जगुणा । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु सव्वत्थोवा पओअकम्मपदेसटुदा । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । एवं मणुसअपज्जत्तसवविलिदिय-चिदियअपज्जत-तसअपज्जत्तपुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-बादरणिगोदपदिदिद-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर-विभंगणाण-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्टि त्ति वत्तव्वं । ___मणुसगदीए मणुस्सेसु सव्वत्थोवा तवोकम्मपदेसट्टदा । किरियाकम्मपदेसट्टदा संखेज्जगुणा । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगणा । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसणीसु । णवरि जम्हि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कायव्यं । इंदियाणुवादेण एइंदिएसु सम्वत्थोवा आधाकम्मपदेसट्टदा । पओअकम्मपदे - सट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा एवं सब्वएइंदिय-सव्ववणप्फदि-दोअण्णाणिमिच्छाइट्ठि-असणि ति वत्तव्वं पंचिदियदुअस्स मणुस्सोघो। गवरि प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकमकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। असंयत और तीन अशुभलेश्यावाले जीवोंके इसी प्रकार कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी । है। इससे समवधान कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक बादर निगोद प्रतिष्ठित, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्याग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता संख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणा है । इससे अधःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणा है इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि जहां असंख्यातगुणा कहां है वहां संख्यातगुणा करना चाहिये इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियों मे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, दो अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों के कहना चाहिये । पंचेन्द्रियद्विकके सामान्य मनुष्यों के समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मको प्रदेशार्थताअसंख्यातगुणी है । इसी प्रकार त्रसद्विक, पांच मनोयोगी पांच For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org -
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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