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________________ १८६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. पदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । एवमोहिदंसणि-सम्माइट्ठि-खइयसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइट्ठि-सुक्कलेस्सिएसु वि वत्तव्वं । मणपज्जवणाणीसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मपदेसट्टदा । पओअकम्मतवोकम्मपदेसट्टदा विसेसाहिया । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसट्ठदा अणंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा संखेज्जगुणा । ___ संजमाणुवादेण संजदाणं मणपज्जवभंगो। सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदागमेवं चेव । णवरि इरियावथकम्मपदेसट्टदा त्थि। सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सव्वत्थोवाओ पओअकम्म-तवोकम्मपदेसट्टदाओ । आधाकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । एवं परिहारसुद्धिसंजदेसु वि वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मपदेसट्टदा अस्थि । संजदासंजदेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्म-पओअकम्मपदेस?दाओ। आधाकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। लेस्साणवादेण तेउ-पम्मलेस्सिएसु पुरिसवेदभंगो । अलेस्सिएसु सव्वत्थोवा तवोकम्मपदेसट्टदा । आधाकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । समोदागकम्मपदेसट्टदा अणंतगणा । भवियाणवादेण अभवसिद्धिएसु सव्वत्थोवा पओअकम्मपदेसट्टदा । आधाकम्मपदेसठ्ठदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समत्ताणुवादेण वेदगसम्माइट्ठीसु सम्वत्थोवा इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और शुक्ललेश्यावाले जीवोंके भी कहना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म और तपःकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है। इससे अधःकर्म प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता संख्यातगुणी है। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंके मनःपर्य यज्ञानियोंके समान जानना चाहिये । सामायिक और छेदोपस्थपनाशुद्धिसंयत जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकमकी प्रदेशार्थता नहीं है । सूक्ष्मसाम्रायिकशुद्धिसंयतोंमें प्रयोगकर्म और तपःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयतोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहां क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता होती है । संयतासंयतोंमें क्रियाकर्म और प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । लेश्यामार्गणाके अनुवादसे पीत और पद्मलेश्यावालोंके पुरुषवेदके समान जानना चाहिये । लेश्यारहित जीवोंमें तपःकर्मको प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । भव्यमार्गणाके अनुवादसे अभव्य जीवोंके प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अधःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता और प्रयोगकर्मकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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