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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड (५, ३, १३. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पायधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवइ एक्का ।। ४ ।। एवं दव्वफासपरूवणा गदा । जो सो एयक्खेत्तफासो णाम ।। १३ ।। तस्स अत्थपरूवणा कीरदि त्ति भणिदं होदि । जंदव्वमेयखेत्तेण फुसदि सो सम्वो एयक्खेत्तफासो णाम ॥ १४ ॥ एक्कम्हि आगासपदेसे ट्ठिदअणंतागंतपोग्गलक्खंधाणं समवाएण संजोएण वा जो फासो सो एयक्खेत्तफासो णाम । बहुआगं दवाणं अक्कमेण एयक्खेत्तफुसणदुवारेण वा एयक्खेत्तफासो वत्तव्यो । ___ सत्ता सब पदार्थों में स्थित है, सविश्वरूप है, अनन्त पर्यायवाली हैं; नाश, उत्पाद और ध्रौव्यस्वरूप है; तथा सप्रतिपक्ष होकर भी एक है ।। ४ ।। विशेषार्थ- यहां द्रव्योंके स्पर्शके भेद और उनके कारणोंकी विस्तृत चर्चा की गई है। सब द्रव्योंके दो प्रकारका सम्बन्ध दिखलाई देता है- एक अनादि सम्बन्ध और दूसरा सादि सम्बन्ध । धर्म, आदि चार द्रव्योंके साथ जीव और पुद्गल का तथा उनका परस्पर में अनादि सम्बन्ध है। तथा जीव जीवका, जीव पुद्गलका और पुद्गल पुद्गलका दोनों प्रकारका सम्बन्ध देखा जाता हैं । प्रकृतमें स्पर्श शब्दकी व्याख्या है- जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है या जो स्पर्श करता है । इस व्याख्यानके अनुसार सभी द्रव्योंका परस्पर में सर्शभाव बन जाता है। बन्धविशेषकी अपेक्षा जीव जीवके साथ, जीव पुद्गलके साथ और पुद्गल पुद्गल के साथ परस्पर संश्लेषको प्राप्त होते रहते हैं इसलिये इनका तो स्पर्श है ही; किन्तु सत्त्व. प्रमेयत्व आदि धर्मोंकी अपेक्षा इनका अन्य द्रव्योंके साथ और अन्य द्रव्योंका परस्परमें स्पर्श बन जाता है। नयविशेषकी दृष्टिसे यह योजना की गई है जिसका खुलासा मूलमें किया ही है। इस प्रकार छह द्रव्योंके स्वसंयोगी, द्विसंयोगी आदिकी अपेक्षा कुल भंग ६३ होते हैं। स्वसंयोगी ६, द्विसंयोगी १५, त्रिसंयोगी २०, चतुःसंयोगी १५, पंचसंयोगी ६ और षट्संयोगी १; कुल ६३ भंग होते हैं । इनका स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है । इस प्रकार द्रव्यस्पर्शका कथन समाप्त हुआ। अब एकक्षेत्रस्पर्शका अधिकार है ॥ १३ ॥ इसकी अर्थप्ररूपणा करते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जो द्रव्य एक क्षेत्रके साथ स्पर्श करता है वह सब एकक्षेत्रस्पर्श है ॥१४॥ एक आकाशप्रदेशमें स्थित अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धोंका समवाय सम्बन्ध या संयोग सम्बन्धद्वारा जो स्पर्श होता है वह एकक्षेत्रस्पर्श कहलाता है । अथवा बहुत द्रव्योंका युगपत् एकक्षेत्रके स्पर्शनद्वारा एकक्षेत्रस्पर्श कहना चाहिये । ॐ पंचा. ८, प. खं. पु. ९ पृ. १७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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