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________________ १०० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु अप्पप्पण्णो पदाणमोघभंगो। एवमसंजद-किण्णणील-काउलेस्सियाणं पि वत्तव्वं । मणुसगदीए मणस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-इरियावहकम्म-तवोकम्माणं दवट्ठ-पदेसट्टदा लोगस्स असंखेज्जदिमागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा। आधाकम्मदव्वटु-पदेसट्टदा सव्वलोगे। किरियाकम्मदव्वट-पदेसटुदा लोगस्स असंखेजदिभागे। एवं पंचिदियदोणि-सव्वतसदोणि सुक्कलेस्सिया। एइंदिए सव्वपदा सवलोगे। एवं बादर. पुढविअपज्जत्त-बादरआउअपज्जत्त-बादरतेउअपज्जत - बादरशउअपज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय-सरीरअपज्जत्त-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जताणं । तेसिं चेव पंचण्णं कायाणं सुहमपज्जत्तापज्जत्ताणं दोण्णिअण्णणाणि-अभवसिद्धि-मिच्छाइटि-असण्णीणं च वत्तव्वं । अवगदवेदाणं सव्वपदा लोगस्स असंखेज्जदिमागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्व. लोगे वा। एवं (अकसाइ-) केवलणाणि-केवलसणि-जहाक्खादसंजदाणं* वत्तन्वं । एवं संजदाणं । णवरि किरियाकम्मं लोगस्स असंखेज्जदिभागे। एवं सम्माइट्ठिखइयसम्माइट्ठीणं वत्तव्वं । एवं खेत्तं समत्तं । पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वपदाणमदीदलोकप्रमाण है , ऐसा कहना चाहिये । तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें अपने अपने पदोंका क्षेत्र ओघके समान हैं। इसी प्रकार असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले और कपोत लेश्यावाले जीवोंके भी कहना चाहिये। मनुष्य गतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, ईर्यापकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका क्षेत्र लोकका असख्यातवां भाग, लोकका असंख्यात बहुभाग और सब लोक है। अधःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता क्षेत्र सब लोक है । तथा क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थताका र प्रदेशार्थताका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है। इसी प्रकार पचेन्द्रिय द्विक त्रसद्विक और शक्ल लेश्यावाले जीवोंके सब पदोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका क्षेत्र जानना चाहिय । एकेन्द्रियोंमें सब पदोंका क्षेत्र सब लोक है। इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त बादर वायुकायिक अपप्ति, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपप्ति, वे ही पांचों स्थावर कायिक तथा उनके सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त, दोनों अज्ञानी, अभव्य सिद्धिक, मिथ्यादष्टि और असंज्ञियोंके कहना चाहिये। __ अपगतवेदवालोंमें सब पदोंका लोकका असंख्यातवां भाग, लोकका असंख्यात बहुभाग, और सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार केवलज्ञानी अकषायी केवलदर्शनी और यथाख्यातविशुद्धिसयत जीवोंके कहना चाहिये। तथा इसी प्रकार संयतोंके कहना चाहिये । किंतु इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके कहना चाहिये । इस प्रकार क्षेत्र अनुयोगद्वाराका कथन समाप्त हुआ। स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ओघसे सब पदोंका अतीत और वर्तमानकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है। यहां इतनी विशेषता है ताप्रती ' दोण्णि- एइदि सव्वपदा ' इति पाठः ] *अ-काप्रत्योः । जहाक्खादसंजदासंजदाणं इति पाठः । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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