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________________ ५, ३, २०. ) फासाणुओगद्दारे तयफासो ( १९ कतो णव्वदे? खंधभावण्णहाणुववत्तीदो। जदि परमाणू णिरवयवो होज्ज तो क्खंधापत्ती जायदे, अवयवाभावेण देसफासेण विणा सव्वफासमुवगर्हितो धुप्पत्तिविरोहादो । ण च एवं उप्पण्णखंधुवलंभादो । तम्हा सावयवो परमाणू त्ति घेत्तव्वो । जो सो तयफासो णाम ।। १९ ।। तस्स अत्यो उच्चदे जं दव्वं तयं वा गोतयं वा फुसदि सो सव्वो तयफासो णाम ॥ २० ॥ तयो णाम रुक्खाणं गच्छाणं कंधाणं वा वक्कलं । तस्सुवरि पप्पदकलाओ यं । सूरणलय-लंड-हलिद्दादीणं वा बज्झपप्पदकलाओ णोतयं णाम । जं दव्वं तयं वाणोतयं वा पुसदि सो तयफासो णाम । एसो तयफासो दव्वफासे अंतब्भावं किण्ण यदि परमाणु निरवयव होवे तो स्कन्धोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि, जब परमाणुओंके अवयव नहीं होंगे तो उनका एकदेशस्पर्श नहीं बनेगा और एकदेशस्पर्शके विना सर्वस्पर्श मानना पडेगा जिससे स्कन्धोंकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उत्पन्न हुए स्कन्धोंको उपलब्धि होती है । इसलिये परमाणु सावयव होता है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ - एक द्रव्यका अन्य द्रव्यके साथ जो एकदेश स्पर्श होता है उसे देशस्पर्श कहते हैं । उदाहरणार्थ - एक स्कन्धका अन्य स्कन्धके साथ बन्ध होनेपर जो नया स्कन्ध बनता है वह देशस्पर्शका उदाहरण है। इसी प्रकार एक परमाणुका दूसरे परमाणु के साथ बन्ध होनेपर जो दो प्रदेशावगाही स्कन्ध बनता है वह भी देशस्पर्शका उदाहरण है । प्रकृतमें परमाणुको सावयव सिद्ध करनेके लिये जो युक्ति दी गई है और आगमका अर्थ किया गया है उसका भाव इतना ही है कि परमाणुके छेद करना तो शक्य नहीं है, पर पूर्वभाग व पश्चिमभाग इत्यादि रूपसे उसका भी विभाग होता है। अन्य दर्शनोंमें परमाणुको जैसा सर्वथा निरंश कहा है वैसा निरंश जैन दर्शन नहीं मानता । अब त्वक्स्पर्शका अधिकार है ॥ १९ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं जो द्रव्य त्वचा या नोत्वचाको स्पर्श करता है वह सब त्वक्स्पर्श है | ॥ २० ॥ वृक्ष, गच्छ या स्कन्धोंकी छलको त्वचा कहते हैं और उसके ऊपर जो पपडीका समूह होता है उसे नोत्वचा कहते हैं । अथवा सूरण, अदरख, प्याज और हलदी आदिकी जो बाह्य पपडीका समूह है उसे नोत्वचा कहते हैं । जो द्रव्य त्वचा या नोत्वचाको स्पर्श करता है वह त्वक्स्पर्श कहलाता है । शका - यह त्वक्स्पर्श द्रव्यस्पर्श में अन्तर्भावको क्यों नहीं प्राप्त होता ? (१) प्रतिषु 'कंदाणं' इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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