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________________ १२) प्रस्तावना इस प्रकार अक्षरोंकी अपेक्षा श्रुतज्ञानका विचार कर आगे क्षयोपशमकी दृष्टिसे उसका विचार किया गया है। इसमें सबसे अल्प क्षयोपशम रूप ज्ञानको श्रुतज्ञानका प्रथम भेद माना गया है। इसका नाम पर्यायज्ञान है। यह सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके होता है और नित्योद्घाटित है । अर्थात् इस ज्ञानके योग्य क्षयोपशमका संसारी छद्मस्थ जीवके कभी अभाव नहीं होता। इसका परिमाण अक्षरस्वरूप केवलज्ञानका अनन्तवां भाग है। इसके बाद दूसरा भेद पर्यायसमास है । यह पर्यायज्ञानसे क्रमवृद्धिरूप है। वृद्धिका निर्देश धवला) किया ही है। तीसरा भेद अक्षरज्ञान है। विवक्षित अकारादि एक अक्षरके ज्ञान के लिए जितना क्षयोपशम लगता है तत्प्रमाण यह ज्ञान है। इसी प्रकार क्रमवद्धिरूप आगके ज्ञान जानने चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्यायज्ञानके आर छह स्थानपतित वृद्धि होती है ओर अक्षरज्ञानके ऊपर अक्षरज्ञानके क्रमसे वृद्धि होती है। यद्यपि कुछ आचार्य अक्षरज्ञानके ऊार भी छह स्थानपतित वृद्धि स्वीकार करते हैं, पर वीरसेन स्वामी इससे सहमत नहीं हैं। पदज्ञानसे यहां मध्यम पदका ज्ञान लिया गया है। एक मध्यम पदमें १६३४८३०७८८८ अक्षर होते हैं। क्योंकि द्वादशांगके पदोंकी गणना इतने अक्षरोंका एक पद मानकर की जाती है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि होकर पूर्वसमास ज्ञानके अन्तिम विकल्पमें श्रुतज्ञानको समाप्ति होती हैं। यह ज्ञान श्रुतके वलीके होता है । इस प्रकार सयोपशमकी दृष्टि से श्रुतज्ञानके कुल भद २० होते हैं। पूर्व चौदह है। उनमेंसे प्रथम पूर्वका नाम उत्पादपूर्व है और अन्तिम पूर्वका नाम लोकबिन्दुसार हैं । इसलिए प्रथम पूर्वको मुख्य मान कर क्षयोपशमकी वृद्धि करनेपर भी यही क्रम बैठता है और अन्तिम पूर्वको प्रथम मान कर क्षयोपशमको वृद्धि करनेपर भी यही क्रम उपलब्ध होता है, क्योंकि सब पूर्वोमें अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास' प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार अनुयोगद्वारसमास, प्राभृताप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभूतसमास, वस्तु, वस्तुसमासः, पूर्व और पूर्वसमासरूप ज्ञान विवक्षित है । किस क्रमसे ज्ञान होता है, इसकी यहां मुख्यता नहीं है; यह अभ्यासकी बात है। हो सकता है कि पर्याय और पर्यायसमास ज्ञानके बाद किसीको उत्पादपूर्वके एक अक्षरका ज्ञान सर्वप्रथम हो, क्सिीको लोकबिन्दुसारके एक अक्षरका ज्ञान सर्वप्रथम हो, और किसीको अन्य पूर्व के एक अक्षरका ज्ञान सर्वप्रथम हो । ज्ञान किसी भी पूर्वका हो, वह होगा अक्षरादि क्रमसे ही; क्योंकि संघात आदि पूर्वके अधिकार हैं। किस पूर्व में कितनी वस्तुएं होती हैं, इसका अलगसे निर्देश या है। सब वस्तओंका ज्ञान वस्तसमासज्ञान कहलाता है। मात्र एक अक्षरका ज्ञान इस ज्ञानमेंसे घटा देना चाहिए, क्योंकि एक पूर्वसम्बन्धी सब बस्तुओं का पूरा ज्ञान हो जानेपर वह पूर्वज्ञान इस संज्ञा को प्राप्त होता है और सब पूर्वसम्बन्धी सब वस्तुओंका पूरा ज्ञान हो जानेपर उसकी पूर्वसमास श्रुतज्ञान संज्ञा होती है। इसी प्रकार वस्तुके अवान्तर अधिकार प्राभृतोंके सम्बन्धमें जानना चाहिए। तथा यही क्रम अन्य अधिकारों, अधिकारोंके पदों और पदोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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