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________________ विषय-परिचय ( ११ ज्ञानका दूसरा भेद श्रुतज्ञान है। यह मतिज्ञानपूर्वक मनके आलम्बनसे होता है । तात्पर्य यह कि पांच इंद्रियों और मनके द्वारा पदार्थको जानकर आगे जो उसीके सम्बन्धमें या उसके सम्बन्धसे अन्य पदार्थके सम्बन्धमें विचारकी धारा प्रवृत्त होती है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यहां सर्वप्रथम द्वादशांग वाणीकी मुख्यतासे उसके संख्यात भेद किये गये हैं, क्योंकि कुल अक्षर और उनके संयोगी भङ्ग संख्यात ही होते हैं | कुल अक्षर ६४ हैं। यथा- २५ वर्गाक्षर, य, र, ल और व ये चार अन्तस्थ अक्षर; श, ष, स और ह ये ४ ऊष्माक्षर; अ, इ, उ, ऋ, ल, ए, ऐ, ओ और औ ये नौ स्वर -हस्व, दीर्घ और प्लुतके भेदसे २७; तथा अं, अः, ~क और ये ४ अयोगवाह । इस प्रकार सब मिलाकर ४ स्वतन्त्र अक्षर होते हैं। इनके एकसंयोगी और द्विसंयोगीसे लेकर चौसठसंयोगी तक सब अक्षर एकट्ठी प्रमाण होते हैं। एकट्ठीसे तात्पर्य १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ संख्यासे है। चौंसठ बार दोका अंक (२४२४२ इत्यादि ) रख कर और परस्पर गणा कर लब्ध राशिमेंसे एक कम करनेपर यह संख्या आती है। द्वादशांगवाणीका संकलन इन सब अक्षरोंमें हुआ था और इसलिए यह बतलाया गया है कि किस अंगमें कितने अक्षर थ । वीरसेन स्वामीने' इन संयोगी और असंयोगी अक्षरोंका स्वयं ऊहापोह किया है। वे बतलाते हैं कि अ आदि प्रत्येक अक्षर असंयोगी अर्थात् स्वतन्त्र अक्षर है और अनेक अक्षर मिल कर जो शब्द या वाक्य बनता है वह संयोगी अक्षरोंका उदाहरण है। इसके लिए उन्होंने 'या, श्री: सा गौ: ' यह दृष्टांत उपस्थित किया है। इस दृष्टांतमें 'य, आ, श्, र, ई, अः, स्, आ, ग्, औ और अः' ये ग्यारह अक्षर आये है। वीरसेन स्वामी इन्हें एक संयुक्ताक्षर मानते हैं। इससे द्वादशांगमें संयुक्त और असंयुक्त अक्षर किस प्रकारके होंगे और उनका उच्चारण किस प्रकारसे होता होगा, यह सब स्थिति स्पष्ट हो जाती है । पुनरुक्त अक्षरोंका जो प्रश्न खडा किया जाता है उसपर भी इससे पर्याप्त प्रकाश पडता है। द्वादशांग वाणीमें पदका प्रमाण अलगसे माना गया है । इससे विदित होता है कि वहां पदोंकी परिगणना किसी वाक्य या श्लोकके एक चरणके आधारसे नहीं की जाती रही है जिस प्रकार कि वर्तमानमें गद्यात्मक या पद्यात्मक ग्रंथके परिमाणकी गणना बत्तीस अक्षरोंके अधारसे की जाती है। विचार कर देखा जाय तो वहां एक अनुष्टुप्में केवल बत्तीस अक्षर ही नहीं होते; किन्तु मात्रा, विसर्ग और संयुक्त अक्षर बाद करके ये लिए जाते हैं । तथा गद्यात्मक या अनुष्टुप्के सिवा अन्य पद्यात्मक साहित्यमें चाहे वाक्य पूरा हो या न हो जहां बत्तीस अक्षर होते है वहां एक अनुष्टुप् श्लोकका परिमाण मान लिया जाता है। उसी प्रकार द्वादशांग वाणीमें भी मध्यम पदके द्वारा इन अक्षरोंकी परिगणना की गई होगी। मात्र वहांपर गणना करते समय मात्रा आदि भी अक्षरके रूपमें परिगणित किये गये होंगे। हां प्रत्येक अंग ग्रन्थमें अपुनरुक्त अक्षरोंका विभाग किस प्रकार किया गया होगा और प्रत्येक ग्रन्थ का इतना महा परिमाण कैसे सम्भव है, ये प्रश्न अवश्य ही ध्यान देने योग्य हैं । सभ्मव हे उत्तर कालमें इनका भी निर्णय हो जाय और एतद्विषयक जिज्ञासा समाप्त हो जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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