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________________ विषय-परिचय (१३ अक्षरोंके विषयमें भी जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि समस्त श्रुतज्ञानके विकल्प मुख्यतया चौदह पूर्वज्ञानसे सम्बन्ध रखते हैं, क्योंकि श्रुतज्ञानमें पूर्वज्ञानकी ही मुख्यता है । इस प्रकार समस्त श्रुतज्ञान चौदह पूर्वोके ज्ञानके साथ सम्बन्धित हो जानेपर अंगबाह्यज्ञग्न, ग्यारह अंगोंका ज्ञान ; और परिकर्म, सूत्र प्रथमानुयोग तथा चूलिकाओंका ज्ञान; ये श्रुतज्ञानके किस भदमें गभित है, यह प्रश्न उठता है । वीरसेन स्वामीने इस प्रश्नका इस प्रकार समाधान किया है- वे कहते हैं कि इस सब ज्ञानका अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमासमें या प्रतिपत्तिसमास ज्ञानमें अन्तर्भाव किया जा सकता हैं । यह पूछनेपर कि ये सब तो पूर्वसम्बन्धी अवान्तर अधिकार हैं, इनमें पूर्वातिरिक्त श्रुतज्ञानका अन्तर्भाव कैसे हो सकता है । इसपर वीरसेन स्वामीका कहना है कि ये पूर्व के अवान्तर अधिकार ही होने चाहिए, ऐसी कोई बात नहीं है; पूर्वातिरिक्त साहित्यके भी ये अधिकार हो सकते हैं। साधारणत: इस प्रकार समाधान तो हो जाता है, पर भी यह जिज्ञासा बनी रहती है कि यदि यही बात थी तो समस्त श्रुतज्ञानके भेद-प्रभेद समस्त पूर्वो और उनके अधिकारों व अवान्तर अधिकारोंकी दृष्टिसे ही क्यों किये गये हैं। पूर्वोके य अधिकार और अवान्तर अधिकार केवल दिगम्बर परम्परा ही स्वीकार करती हो, ऐसी बात नहीं है; श्वेताम्बर परम्पराम भी ये इसी प्रकार स्वीकार किये गये हैं। हमारा विश्वास है कि विशेष अनुसन्धान करनेपर इससे ऐतिहासिक तथ्यपर प्रकाश पडना सम्भव है। क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि श्रुतज्ञानमें पहले पूर्वो सम्बन्धी ज्ञान ही विवक्षित था । बादमें उसमें आचारांग आदि सम्बन्धी अन्य ज्ञान गभित किया गया है । जो कुछ हो, है, यह प्रश्न विचारणीय । इस प्रकार श्रुनज्ञानकी प्ररूपणा करके अन्त में उसके पर्याय नाम दिये गये हैं जो कई दृष्टियोंसे महत्व रखते हैं । तीसरा ज्ञान अवधिज्ञान है । इसे मर्यादाज्ञान भी कहते हैं, क्योंकि यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदिकी सहायताके विना होता है । क्षयोपशमकी दृष्टिसे असंख्यात प्रकारका होकर भी इसके मुख्य भेद दो हैं- भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों, नारकियों तथा तीर्थंकरोंके होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तिर्यञ्चों व मनुष्योंके होता है । देवों और नारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान होते हुए भी वह पर्याप्त अवस्थामें ही होता है, इतना विशेष समझना चाहिए। तिर्यञ्चों और मनुष्योंके गुणप्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त अवस्थामे ही होता है, यह स्पष्ट है । इन दोनों अवधिज्ञानोंके अनेक भेद हैं - देशावधि, परमावधि और सर्वावधि तथा हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित अनुगामी, अननुगामी सप्रतिपाती, अप्रतिपाती एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र । इन सबका विशेष विचार यहां वीरसेन स्वामीने किया है। किस अवधिज्ञानका द्रव्य, क्षेत्र और काल कितना है१ इसका भी विचार मूल सूत्रोंमें और धवला टीकामें भी किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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