SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा (८३ एवं विदियसुक्कज्झाणपरूवणा गदा। संपहि तदियसुक्कज्झाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-क्रिया नाम योगः। प्रतिपतितुं शीलं यस्य तत्प्रतिपाति । तत्प्रतिपक्षः अप्रतिपाति । सूक्ष्म क्रिया योगो यस्मिन् तत्सूक्ष्मक्रियम् । सूक्ष्मक्रियं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । केवलज्ञानेनापसारितश्रुतज्ञानत्वात् तदवितर्कम् । अर्थांतरसंक्रांत्यभावात्तदवीचारं व्यञ्जनयोगसंक्रांत्यभावाद्वा। कथं तत्संक्रांत्यभावः ? तदवष्टंभबलेन विना अक्रमेण त्रिकालगोचराशेषावगते: । एत्थ गाहाओ अविदक्कमवीचार सुहुमकिरियबंधणं तदियसुक्कं । सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्व भावगयं ।। ७२ ।। सुहमम्मि कायजोगे वटुंतो केवली तदियसुक्कं । ज्झायदि णिरुंभिदुं जो सुहुमं तं कायजोगं पि॥ ७३ ॥ एदस्स भावत्थो-उप्पण्णकेवलणाणदंसणेहि सव्वदव्वपज्जाए तिकालविसए जाणतो पस्संतो करणक्कमववहाणवज्जियअणंतविरियो असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरं इस प्रकार दूसरे शुक्लध्यानका कथन समाप्त हुआ। ___ अब तीसरे शुक्लध्यानका कथन करते हैं। यथा - क्रियाका अर्थ योग है। वह जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है, और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है। जिसम क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्म क्रिय कहा जाता, और सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान कहलाता है । यहां केवलज्ञानके द्वारा श्रुतज्ञानका अभाव हो जाता है, इसलिये यह अवितर्क है; और अर्थान्तरकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है। अथवा व्यंजन और योगको संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है। शंका- इस ध्यान में इनकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है ? समाधान- इनके आलम्बनके विना ही युगपत् त्रिकाल गोचर अशेष पदार्थों का ज्ञान होता है, इसलिये इस ध्यान में इनकी संक्रान्ति के अभावका ज्ञान होता है । इस विषयमें गाथायें तीसरा शुक्लध्यान अवितर्क, अवाचार और सूक्ष्म क्रियासे सम्बन्ध रखनेवाला होता है क्योंकि, काययोगके सूक्ष्म होने पर सर्वभावगत यह ध्यान कहा गया है ।। ७२ ।। जो केवली जिन सूक्ष्म काययोगमें विद्यमान होते हैं वे त सरे शुक्लध्यानका ध्यान करते हैं और उस सूक्ष्म काययोगका भी निरोध करने के लिये उसका ध्यान करते हैं ।। ७३ ।। अब इसका भावार्थ कहते हैं-केवलज्ञान और केवल दर्शनके उत्पन्न हो जाने के कारण जो त्रिकालविषयक सब द्रव्य और उनकी सब पर्यायोंको जानते हैं और देखते हैं; करण, क्रम और व्यवधानसे रहित होकर जो अनन्त वीर्य के धारक हैं, तथा जो असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मोंकी निर्जरा कर रहे हैं, ऐसे सयोगी जिन कुछ कम पूर्वकोटि काल तक विहार कर आयुके अन्तर्मुहुत Dआ-ताप्रत्योः ‘गोचराक्षावगतेः' इति पाठः । म भग. १८८६. ॐ भग. १८८७. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy