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________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १२९ उववण्णो । तदो पुत्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। तदो पुव्वकोडि विहरिदूण सिद्धो जादो। एवं पढमपुत्वकोडीए अधापवत्तकरण-अपुवकरण-अणियट्टिकरण-कदकरणिज्जद्धाहिय-गम्भादिअटुवस्सेहि बिदियपुव्वकोडीए अपुव्वखवग-अणियट्टिखवगसुहमखवग-खीणकसाय सजोगि-अजोगिअद्धाहि य ऊणबेपुवकोडीहिर अन्भहिय-- तेत्तीससागरोवममेत्तकिरियाकम्मुक्कस्सकालुवलंभादो। एवं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं पि वत्तन्वं । वेदगसम्माइट्ठीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-किरियाकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमतं । उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि देसूणाणि। देसूणाणि ति* भणिदे सवजहण्णखइयसम्माइटिकालेणणाणि ति घेत्तव्यं । णवरि चारित्तमोहक्खवणकालो छावट्ठीदो बाहिरो ति घेत्तव्यो । तवोकम्म केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा । एगजीवं पड़च्च जहण्णण अंतोमहत्तं। कुदो? वेदगसम्माइटिअसंजदम्मि परिणामपच्चएण पडिवण्णसंजमम्मि संजमे सव्वलहुअं कालमच्छिय असजममवगम्मि तवोकम्मस्स जहण्णकालुवलंभादो । उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । कुदो? एक्को वेदगसम्माइट्ठी देवो वा णेरइयो वा पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। गब्भादिअवस्साणमुवरि सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। तदनन्तर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हआ । तदनन्तर पूर्वकोटि काल तक विहार करके सिद्ध हो गया। इस प्रकार प्रथम पूर्वकोटिके अधःप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और कृतकरणीय सम्बन्धी कालसे अधिक गर्भसे लेकर आठ वर्षप्रमाण कालसे न्यून तथा दूसरी पूर्वकोटिके अपूर्वक्षपक, अनिवृत्तिक्षपक, सूक्ष्मसाम्परायक्षपक, क्षीणकषाय, सगेगी और अयोगी सम्बन्धी कालसे न्यून दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर प्रमाण क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल पाया जाता है। इसी प्रकार प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका भी कथन करना चाहिये। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है । यहां देशोन कहनेसे सबसे जघन्य क्षायिकसम्यग्दृष्टि संबंधी कालसे न्यन काल लेना चाहिय। इतनी विशेषता है कि चारित्रमोहनीयकी क्षपणका काल छयासठ सागरसे बाहर है, ऐसा जानना चाहिये । तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है, क्योंकि जो असंयत वेदकसम्यग्दृष्टि जीव परिणामोंके निमित्तसे संयमको प्राप्त हो जाता है और संयममें सबसे थोडे काल रहकर असंयमको प्राप्त हो जाता है उसके तपःकर्मका जघन्य काल उपलब्ध होता है। उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, क्योंकि, कोई एक वेदकसम्यदृष्टि देव या नारकी जीव पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर संयमको ४ का-ताप्रत्योः । ऊणपुवकोडीहि ' इति पाठः । ताप्रती · देसूणा त्ति ' इति पाठः । * ताप्रती · कालेणूणा ' इति पाठः । * प्रतिषु 'पडिवण्णसंजदम्मि' इति पाठः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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