SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. कम्मं णत्थि । संजदासंजदेसु आहारकायजोगिभंगो । णवरि तवोकम्मं णत्थि । वेदानुवादेण इस्थि- पुरिसवेदेसु सव्वत्थोवा तवोकम्मदव्वदा | किरियाम्मदव्वदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वट्ठदाओ दो विसरिसाओ असंखेज्जगुणाओ । तवोकम्मपदेसट्ठदा असंखेज्जगुणा । किरियाकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्मपदेसदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मदव्वदा अनंतगुणा । तस्सेव पदेसदा अनंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसदा अनंतगुणा | 1 सय वेदे मूलोघो । णवरि इरियावथकम्मं णत्थि । पओअकम्म-समोदाणकम्म - दव्वदाओ दो विसरिसाओ । अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वदा । पओअकम्मदव्वदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? अवगदवेद-अणियट्टोहि सुहुमसांपराइएहि य । समोदाणकम्म तवोकम्मदव्वद्वदाओ विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ? अजोगिदव्वदामेत्तेण । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । तवोकम्मपदेसदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? अजोगिपदेस ट्ठदामेत्तेण । आधाकम्मदव्वट्टदा अनंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अनंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसदृदा अनंतगुणा । समोदाकम्मपदेसदा विसेसाहिया । एवं केवलणाणि जहावखादविहारसुद्धि संजद- केवलदंसणीणं पिवत्तव्वं । वरि पओअकम्म इरियावथकम्मदव्वट्टदाओ दो वि सरिसाओ संयतासंयतोंके आहारककाययोगियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनके तपः कर्म नहीं है। वेदमार्गणा अनुवादसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदी जीवोंमें तपःकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनों की द्रव्यार्थता समान होंकर असंख्यातगुणी हैं। इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यात - गुणीं है | इससे अध:कर्म की द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । नपुंसकवेदवालोंमें मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्म नहीं है । तथा प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान है । अपगतवेदवालों में ईर्यापथकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म की द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अपगतवेद अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय जीवोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है । इससे समवधानकर्म और तपकर्म की द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगी जीवोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है । इससे प्रयोगकमंकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगी जीवोंकी जितनी प्रदेशसंख्या हैं उतनी अधिक है । इससे अधः कर्मी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे कर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । इसी प्रकार केवलज्ञानी ( यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत - ) और केवलदर्शनी जीवों के भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्म और ईर्यापथकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy