SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ४, ३१.) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १९१ एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु वत्तव्वं । णवरि जम्हि असंखेज्जगुणं भणिदं तम्हि संखेज्जगुणं भाणिदव्वं । णवरि तवोकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा चेव ।। ___ जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचिजोगीसु पंचिदियभंगो। णवरि पओअकम्म-समो. दाणकम्मदव्वट्ठदाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगणाओ। ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवाओ इरियावहकम्म तवोकम्मदव्वदाओ। किरियाकम्मदव्वटदा संखेज्जगुणा। तवोकम्मपदेसद्वदा असंखेज्जगणा। किरियाकम्मपदेसटुदा संखेज्जगुणा । आधाकम्मदवट्टदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ अणंतगुणाओ। पओअकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । एवं कम्मइयकायजोगीसु। णवरि किरियाकम्मदव्वट्ठपदेसट्टदाओ असंखंज्जगुणाओ। एवमणाहारीसु। गवरि समोदाणकम्मदव्वट्ठदा विसेसाहिया। आहार-आहारमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवाओ पओअकम्म-समोदाणकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्मदव्वदाओ। पओअ. कम्म-तवोकम्म-किरियाकम्मपदेसट्टदाओ असंखेज्जगुणाओ। आधाकम्मदवढदा अणंतगुणा। तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। एवं परिहा. रसुद्धिसंजदेसु वत्तव्वं । सहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु एवं चेव होदि । वरि किरियाचाहिये। इतनी विशेषता है कि जहां असंख्यातगुणा कहा है वहां संख्यातगुणा कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असख्यातगुणी ही है। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें पंचेन्द्रियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर असंख्यातगुणी है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें ईर्यापथकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे तप:कर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता संख्यातगुणी है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे ईपिथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर अनन्तगुणी है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमें कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है। आहारक और आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी हैं। इससे उसीको प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयतोंके कहना चाहिये । सूक्ष्मसोपरायिक संयतोंके इसी प्रकार अल्पबहुत्व होता है। इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं है । * अ-आ-ताप्रतिष 'होदूण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy