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________________ ३१८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५,५, ५९. भागोत्ति वृत्ती, एत्थ पुण लंतय- काविट्ठदेवेसु तत्तो सादिरेयं खेत्तं परसंतेसु कधं कालो किचूणपल्लमेतो होदि?ण एस दोसो, भिण्णकप्पेसु भिण्णसहावेसु सगकप्पभेदेण ओहि - णाणावरणीयक्खओवसमस्त पुधभावं पडि विरोहाभावादो । खेत्तमस्सिदूण पुण काले अणिमाणे सोहम्म पहुडि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवे त्ति ताव पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण कालेन होदव्वं, एगस्स घणलोगस्स जदि एगं पलिदोवमं लब्भदि तो घणलोग संखेज्जदिभाग म्हि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिविच्छाए ओवट्टिदाए पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागवलंभादो । ण च एदं, एवं विहगुरूवएसाभावादो । सुक्क - महासुक्क कप्पवासियदेवा अप्पणो विमाणचूलियप्पहुडि जाव चउत्थपुढ - विट्टिमतले त्ति ताव अद्धट्टमरज्जुआयदं एगरज्जुवित्थारं लोगणालि पसंति । सहस्सारया सदरसहस्सारकप्पवासियदेवा अष्पष्पणो विमाणसिहरत्पहुडि हेट्ठिम जाव चढविट्ठमतले त्ति ताव अट्ठरज्जुआयदं एगरज्जुवित्थारं लोगणालि पस्संति । आणद- पाणदवासी तह आरण-अच्चुवा य जे देवा । पसंति पंचमखिदिं छट्ठिम गेवज्जया देवा ।। १३ ।। यहां उनसे कुछ अधिक क्षेत्रको देखनेवाले लान्तव और कापिष्ठ कल्पके देवों में उक्त काल कुछ कम पत्यप्रमाण कैसे हो सकता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भिन्न स्वभाववाले विविध कल्पों में अपने कल्पके भेदसे अवधिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके भिन्न होने में कोई विरोध नहीं है । परन्तु क्षेत्र की अपेक्षा कालके लानेपर सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक उक्त काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग होना चाहिए, क्योंकि, एक घनलोकके प्रति यदि पल्य काल प्राप्त होता है तो घनलोक के संख्यातवें भाग के प्रति क्या लब्ध होगा, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशि से गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशिका भाग देनेपर पल्योपमका संख्यातवां भाग काल उपलब्ध होता है । परंतु यह संभव नहीं है, क्योंकि, ऐसा गुरुका उपदेश नहीं पाया जाता । ( अत: क्षेत्रकी अपेक्षा किये विना जहां जो काल कहा है, उसका ग्रहण करना चाहिए। ) शुक्र और महाशुक्र कल्पवासी देव अपने विमान के शिखरसे लेकर चौथी पृथिवीके नीचे के तलभाग तक साढे सात राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालिको देखते हैं । शतार और सहस्रार कल्पवासी देव अपने विमान के शिखरसे लेकर नीचे चौथी पृथिवीके नीचे के तलभाग तक आठ राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालिको देखते हैं । आनत-प्राणतकल्पवासी और आरण- अच्युत कल्पके देव पांचवीं पृथिवी तक देखते हैं तथा ग्रैवेयकके देव छठी पृथिवी तक देखते हैं ॥ १३ ॥ षट्खं. पु. ९, पृ. २६. पंचमि आणद-पाणद छट्ठी आरणच्चदा य पस्संति । णवगेवज्जा सत्तमि अणुदिस - अणुत्तरा य लोगतं । मूला. १२ - १०८. ति. प. ८, ६८६ आनत प्राणता ऽऽ रणाच्युतानां जघन्योऽवधि: पङ्कप्रभाया अधश्चरमः, उत्कृष्टस्तमः प्रभाया अधश्चरम । त. रा. १, २१, ७ अणयपाणयकप्पे देवा पासति पंचमि पुढवि । तं चेष आरणच्चय ओहिण्णाणेण पासंति ॥ छट्ठि हेट्टिम-मज्झिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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