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________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणस्स खेत्तपरूवणा (३०१ ण, तत्थ वि वरिसमयसद्दो विउलत्तवाचओ त्ति असंखेज्जेसु वरिससदेसु अदिक्कं. तएस एगरोमसमुद्धरणादो असंखेज्जेहि चेव वस्सेहि पलिदोवमं होदि । दसकोडाकोडिपलिदोवमेहि एगं सागरोवमं होदि । वृत्तं च कोटिकोटयो दशैतेषां पल्यानां सागरोपमम । सागरोपमकोटीनां दश कोटयोऽवसर्पिणी ।३१। समयावलियादिसुत्तपदाणि जेण देसामासियाणि तेण एसि विच्चालिमसंखाए गहणं कायव्वं । अधवा, आदिसहो पयारवाचओ तेण एदेसिमंतरकालसंखाणं सागरो. वमादो उवरिमसंखाणं च गहणं कायव्वं । उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि एत्तियं कालमच्छि दूण अणवट्टिदमोहिणाणं वद्भिदूण वा हाइदूण वा जाणंतरं गच्छदि ति मणिद होदि। संपहि जहण्णओहिणाणस्स खेत्तपरूवणपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि .. ओगाहणा जहण्णा णियमा वु सुहमणिगोदजीवस्स जद्देही तद्देही जहणिया खेत्तदो ओही* ॥३॥ एक्स्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- एगमुस्सेहघणंगुलं ठविय पलिदोवमस्स असं. खेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एयखंडपमाणं सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स तदियसमय समाधान - नहीं, क्याकि, वहांपर भी वर्षशत शब्दको वैपुल्यवाची ग्रहण किया है; इसलिए असंख्यात सौ वर्षों के व्यतीत होनेपर एक रोम निकाले । अतः असंख्यात वर्षों का ही एक पल्योपम होता है। दस कोडाकोडी पल्योपमोंका एक सागर होता है। कहा भी है इन दस कोडाकोडी पल्योंका एक सागरोपम होता है और दस कोडाकोडी सागरोपमोंका एक अवसर्पिणी काल होता है । ३१ ।। सूत्रमें जो समय, आवलि आदि पद कहे हैं वे देशामर्शक हैं, अतः इनके बीचकी संख्याका भी ग्रहण करना चाहिए । अथवा आदि शब्द प्रकारवाची है, इसलिए इनके मध्य में आनेवाले कालोंकी संख्याओंका और सागरोपमसे ऊपरकी संख्याओंका ग्रहण होता है। अनवस्थित अवधिज्ञान उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर इतने काल तक अवस्थित रहकर वृद्धिको प्राप्त होकर या हानिको प्राप्त होकर ज्ञानान्तरको प्राप्त होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं । अब जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवको जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतना अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र है । ३ । इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा- एक उत्सेघघनांगुलको स्थापित कर उसमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक खण्डप्रमाण लब्ध आता है उतनी तीसरे समयमें *ताप्रती ‘-सद्दे ( दे ) सु' इति पाठः। ह. पु. ७, ५१ पूर्वार्द्धम्. *म, बं. १, पृ. २१. षट्वं. पू ९प. १६ जावइया तिसमयाहारगस्स सुहमस्स पणगजीवस्स। ओगाहणा जहन्ना ओहीखित्तं जहन्न तु ।। नं सू. गा ४८. विशेषा, ५९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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