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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ४, २५. कालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे-ण, सजोगिकेलि मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुत्तणियमब्भुवगमादो।।
संपहि तदियगाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा-णिज्जरिदमपि तण्ण णिज्जरिदं, सकसायकम्मणिज्जरा इव अण्णेसिमणंताणं कम्मक्खंधाणं बंधमकाऊण णिज्जिण्णतादो। सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे- ण, तस्स दिदि-अणुभागबंधाभावेण सुक्ककुडुपक्खित्तवालुवमुट्टि व्व जीवसंबंधबिदियसमए चेव णिवदंतस्स बंधववएसविरोहादो। उदीरिदं पि ण उदीरिदं, बंधाभावेण जम्मंतर पायणसत्तीए अभावेण च णिज्जराए फलाभावादो। एवमिरियावहलक्खणं तीहि गाहाहि परूविदं ।
जं तं तवोकम्मं णाम ॥ २५ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामोतं सब्भंतरबाहिरं बारसविहं तं सव्वं तवोकम्मं णाम ॥ २६ ॥ तं तवोकम्मं बाहिरमभंतरेण सह बारसविहं। को तवो णाम? तिणं रयणाण
कोटि प्रमाण प्राप्त होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, सयोगिकेवली गुणस्थानको छोडकर अन्यत्र उदयकालका अन्तमहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है।
अब तीसरी गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा- निर्जरित होकर भी वह (ईर्यापथ कर्म) निर्जरित नहीं है, क्योंकि, कषायके सद्भावमें जैसी कर्मोकी निर्जरा होती है, वैसी अन्य अनन्त कर्मस्कन्धोंकी बन्धके बिना निर्जरा होती है।
शंका- वहां सातावेदनीयका बन्ध है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के बिना शुष्क भीतपर फेकी गई मुट्ठीभर बालुकाके समान जीवसे सम्बन्ध होनेके दूसरे समयमें ही पतित हुए सातावेदनीय कर्मको बन्ध संज्ञा देने में विरोध आता है।
उदीरित होकर भी वह उदीरित नहीं है, क्योंकि, बन्धका अभाव होनेसे और जन्मान्तरको उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव होनेसे उसमें निर्जराका कोई फल नहीं देखा जाता।
इस प्रकार ईर्यापथका लक्षण तीन गाथाओं द्वारा कहा। अब तपःकर्मका अधिकार है ॥२५॥ उसके अर्थका खुलासा करते हैंवह आभ्यन्तर और बाह्यके भेदसे बारह प्रकारका है। वह सब तपःकर्म है ॥२६॥ वह तपःकर्म बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे बारह प्रकारका है। शंका- तप किसे कहते हैं ? प्रतिष ' सुक्ख' इति पाठः । ॐ अ-ताप्रत्योः 'जंमत', आप्रतौ 'जं अंत-' इति पाठः ।
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