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________________ ३७६ ) छक्खंडागमे वग्गणाडखं (५, ५, ११८. असंखेज्जविभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ । एवडिायाओ पयडीओ ॥ ११८॥ एक्स्स सुत्तस्स अत्यविवरणं कस्सामो। तं जहा सुहमणिगोदअपज्जत्तएण उस्सेहघणंगलस्स असंखेज्जविभागमेतसवजहण्णोगाहणाए तिरिक्खेसु मारणंतिए मेल्लिदे एगो तिरिक्खगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पो लभदि, एगागासपदेससंबंधेण अपुवमुहागारेण परिणामहेदुत्तादो। पुणो बिदियसहमणिगोदअपज्जत्तएण ताए चेव जहण्णोगाहणाए तिरिक्खेसु उप्पण्णएण अपुव्वो महायरो संपत्तो। ताधे विदियो तिरिक्खगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पो लब्भदि । एवमपुव्व-अपुव्वमहागारेहि तिरिक्खेसु उप्पादेदव्वो जाव जहण्णोगाहणमस्सिदूण घणलोगमेत्ता तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए उत्तरोत्तरपयडिवियप्पा लद्धा ति। संपहि जहण्णोगाहणमस्सिदण तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए वियप्पा एत्तिया चेव लब्भंति, एदेहितो अहियमहागारेणमेत्थ असंभवादो। सहमणिगोदअपज्जत्ताणं सवजहण्णोगाहणाए तिरिक्खेस उप्पज्जमाणाण णव-णवमुहागारा पगरिसेण जदि बहुआ होंति तो घणलोगमेत्ता चेव होंति ति भणिदं होदि । पुणो पदेसत्तरसव्वजहण्णोगाहणाए वि घणलोगमेता चेव तिरिक्खमइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडिवियप्पा लम्भंति । एवं दुपदेसुत्तरजहण्णोगाहणप्पहुडि महामच्छुक्कस्सोगाहणे त्ति ताव एदेसि सव्वोगाहणाणं घणलोगमेत्ता तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पा उप्पादेदश। __ भाग मात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां होती हैं । ११८ । इस सूत्रके अर्थका विवरण करते हैं । यथा-सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण सबसे जघन्य अवगाहनाके द्वारा तिर्यंचोमें मारणान्तिक समुद्घातके करनेपर एक तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका विकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि, वह एक आकाशप्रदेशके सम्बन्धसे अपूर्व मुखाकार रूपसे परिणमनका हेतु है । पुनः दूसरे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके उसी जघन्य अवगाहनाके साथ तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेपर अपूर्व मखाकार प्राप्त होता है । उस समय दूसरा तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प होता है । इस तरह जघन्य अवगाहनाका आलम्बन लेकर घनलोक प्रमाण तिर्यंचगतिप्रायोग्यानपूर्वीके उत्तरोत्तर प्रकृतिविकल्पोंके प्राप्त होने तक अपूर्व अपूर्व मुखाकारोंके साथ तिर्यचों में उत्पन्न कराना चाहिए । जघन्य अवगाहनाका आलम्बन लेकर तिर्य चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के इतने ही विकल्प उपलब्ध होते हैं, क्योंकि, इनसे अधिक मुखाकारोंका प्राप्त होना यहां सम्भव नहीं है । सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकोंके सबसे जघन्य अवगाहनाके साथ तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेपर नूतन नूतन मुखाकार उत्कृष्ट रूपसे यदि बहुत होते हैं तो वे घनलोक प्रमाण ही होते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । पुनः एक प्रदेश अधिक सर्वजघन्य अवगाहनाके आश्रयसे भी धनलोकप्रमाण ही तिर्यचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मके प्रकृतिविकल्प होते हैं। इसी प्रकार दो प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहनासे लेकर महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहना तक इन सब अवगाहनाओं सम्बन्धी अलग अलग घनलोक प्रमाण तिर्यचगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प उत्पन्न कराने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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