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________________ ५, ३, २२. ) फासाणुओगद्दारे सव्व फासो जो सो सव्वफासो णाम ।। २१ । तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो जं दव्वं सव्वं सव्वेण फुसदि, जहा परमाणुदव्वमिदि, सो सव्व सव्वफासो णाम ।। २२ ।। जं किंचि दव्वमण्णेण दव्वेण सव्वं सव्वप्पणा पुसिज्जदि सो सव्वफासो णाम । जहा परमाणुदव्वमिदि । एदं दिट्ठतवयणं । एदस्स अत्थो वुच्चदे - जहा परमाणुदव्वमण्णेण परमाणुणा पुसज्जमाणं सव्वं सव्वप्पणा पुसिज्जदि तहा अण्णो वि जो एवंविहो फासो सो सव्वफासो त्ति दट्ठव्वो । एत्थ चोदओ भगदि - एसो दिट्ठतो ण घडदे । तं जहा - परमाणू परमाणुम्हि पविसमाणो किमेगदेसेण पविसदि आहो सव्वापणा ? ण पढमपक्खो, परमाणुदव्वं * सव्वं सव्वप्पणा अण्णेण परमाणुणा पुसिज्जदित्ति वयणेण सह विरोहादो। ण बिदियपक्खो वि, दव्वे दव्वहि गंधे गंधम्मि रुवे रूवम्हि रसे रसम्मि फासे फासम्मि पविट्टे परमाणुदव्वस्स अभावप्पसंगादो। ण चाभावो, दव्वस्स अभावत्तविरोहादो। ण सरुवमच्छंडिय मान कर त्वक्स्पर्श का पृथक्से विवेचन किया गया है । शेष कथन सुगम है । इस प्रकार त्वक्स्पर्शप्ररूपणा समाप्त हुई । अब सर्वस्पर्शका अधिकार है ।। २१ । उसके अर्थका कथन करते हैं जो द्रव्य सबका सब सर्वात्मना स्पर्श करता है, यथा परमाणु द्रव्य, वह सब सर्व स्पर्श है ॥ २२ ॥ ( २१ जो कोई द्रव्य अन्य द्रव्यके साथ सबका सब सर्वात्मना स्पर्श करता है वह सर्वस्पर्श है । यथा परमाणु द्रव्य । यह दृष्टान्त वचन है । आगे इसका अर्थ कहते हैं - जिस प्रकार परमाणु द्रव्य अन्य परमाणु के साथ स्पर्श करता हुआ सबका सब सर्वात्मना स्पर्श करता है उसी प्रकार अन्य भी जो इस प्रकारका स्पर्श है वह सर्वस्पर्श है. ऐसा जानना चाहिये । शंका- यहां शंकाकारका कहना है कि यह दृष्टान्त घटित नहीं होता है । वह इस प्रकारसे - एक परमाणु अन्य परमाणुमें प्रवेश करता हुआ क्या एकदेशेन प्रवेश करता है या सर्वात्मना प्रवेश करता है ? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि, 'परमाणु द्रव्य सबका सब अन्य परमाणु के साथ सर्वात्मना स्पर्श करता है' इस वचनके साथ विरोध आता है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि, द्रव्यका द्रव्यमें, गन्धका गन्ध में, रूपका रूपमें, रसका रसमें और स्पर्शका स्पर्श में प्रवेश हो जानेपर परमाणु द्रव्यका अभाव प्राप्त होता है । परन्तु अभाव हो नहीं सकता, क्योंकि, द्रव्यका अभाव मानने में विरोध आता है । एक पुद्गल का अपने स्वरूपको छोड़कर अन्य पुद्गल में प्रवेश ताप्रतौ 'पविसमाणो ' इति पाठः । पणा' इति पाठः । * अप्रतौ 'मच्छद्दिय' Jain Education International अप्रतौ 'सवप्पणेग' इति पाठः । * ताप्रती ' - दव्वं इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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