SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय - परिचय ( ९ गोत्रकर्मका नोकर्म है । भण्डारी अन्तराय कर्मका नोकर्म हैं । तात्पर्य यह है कि वस्त्रादि द्रव्यके सामने आ जानेपर ज्ञानावरणका उदयविशेष होता है, जिससे वस्तुका ज्ञान नहीं होता, इसलिए इसकी नोकर्म संज्ञा है । इसी प्रकार अन्य कर्मोंके नोकर्मको घटित कर लेना चाहिए । वहां ये मूल प्रकृतियों की अपेक्षा नोकर्म कहे गये हैं । उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा नोकर्मका विचार करते हुए इष्ट अन्न-पान आदिको सातावेदनीयका और अनिष्ट अन्न-पान आदिको असातावेदनया नोकम कहा है । इसका भी यही तात्पर्य है कि इष्ट अन्न पान आदिका संयोग होनेपर सातावेदनीयकी उदय उदीरणा होती है और अनिष्ट अन्न-पान आदिका संयोग होनेपर असातावेदनीयकी उदय - उदीरणा होती हैं । इन बाह्य पदार्थोंके संयोग-वियोग यथासम्भव उस कर्मके उदय - उदीरणा में निमित्त होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहां प्रकृति अनुयोगद्वारम मुख्य रूपसे नोकर्मकी क्या प्रकृति है, इसका विचार हो रहा है । इसलिए किस कार्यका क्या नोकर्म है, यह न बतलाकर जो पदार्थ नोकर्म हो सकते हैं उनकी प्रकृतिका निर्देश किया है । कर्म प्रकृतिके ज्ञानावरण आदि आठ भेद हैं । इनका स्वरूप इनके नामसे ही परिज्ञात है । ज्ञानावरण- ज्ञान एक होकर भी बन्धविशेषके कारण उसके पांच भेद हैं, अतः सर्वत्र ज्ञांनावरण के पांच भेद किये गये हैं । जो इन्द्रिय और नोइन्द्रियके अभिमुख अर्थात् ग्रहणयोग्य नियमित विषयको जानता है वह आभिनिबोधिकज्ञान है । यह पांच इन्द्रियों और मनके निमितसे अप्राप्तरूप बारह प्रकारके पदार्थोंका अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप तथा प्राप्तरूप उन बारह प्रकारके पदार्थोंका स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इंद्रियोंके द्वारा मात्र अवग्रहरूप होता है; इसलिए इसके अनेक भेद हो जाते हैं । यथा - अवग्रह आदिके भेदसे वह चार प्रकारका हैं, इन चार भेदोंको पांच इन्द्रिय और मन इन छहसे गुणा करनेपर चौवीस प्रकारका है, इन चौबीस भेदोंमें व्यंजनावग्रहके चार भेद मिलानेपर अट्ठाईस प्रकारका है, और इनमें अवग्रह आदि चार सामान्य भेद मिलानेपर बत्तीस प्रकारका है। पुन: इन ४, २४, २८ और ३२ भेदों को छह प्रकारके पदार्थोंसे गुणा करनेपर २४, १४४, १६८, और १९२ प्रकारका है तथा १२ प्रकारके पदार्थोंसे गुणा करनेपर ४८, २२८, ३३६ और ३८४ प्रकारका है । अवग्रहके भेदोंका स्वरूपनिर्देश करते हुए वीरसेन स्वामीने उनकी स्वतंत्र व्याख्या प्रस्तुत की है । वे कहते हैं कि अप्राप्त अर्थका ग्रहण अर्थावग्रह है और प्राप्त अर्थका ग्रहण व्यंजनावग्रह है । इस आधारसे उन्होंने स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों को प्राप्त और अप्राप्त दोनों प्रकारके अर्थका ग्रहण करनेवाला माना है । इस कथनकी पुष्टिमें उन्होंने अनेक हेतु भी दिये हैं । श्रोत्रेन्द्रिय विषयका ऊहापोह करते हुए उन्होंने भाषा के स्वरूपपर भी प्रकाश डाला है। वे अक्षरगत भाषाके भाषा और कुभाषा य दो भेद करके लिखते हैं कि काश्मीर देशवासी, पारसीक, सिंहल और वर्वरिक आदि जनोंकी भाषा कुभाषा है और ऐसी कुभाषायें सात सौ हैं। भाषायें अठारह हैं । इनका विभाग करते हुए वीरसेन स्वामीने भारत देश के मुख्य छह विभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy