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________________ कम्माणुओगद्वारं मुणिसुव्वयजिणवसहं सुव्वयमणिवसहसंथुअं णमिउं । कम्माणुयोयमिणमो बोच्छमणेयत्थ-गंथगयं ॥१॥ कम्मे त्ति ।। १।। कम्मे त्ति जं पुवुद्दिटुमणुयोगद्दारं तस्स परूवणं कस्सामो त्ति अहियारसंभालगमेदेण कदं। ................... इसलिये वहां इसका विवेचन हो चुका है, अतः पुनः इसका विवेचन करना उचित न जानकर यहां उसका कथन नहीं किया है। प्रसंगसे एक प्रश्न यह भी किया गया है कि जब इस अधिकारमें स्पर्शकी मुख्यता है तो सर्वस्पर्श और द्रव्यस्पर्श जो अपुनरुक्त है और जिनका अन्यत्र कथन नहीं किया गया है, उनका यहां अवश्य कथन करना था। इसका समाधान करते हुए वोरसेन स्वामीने जो कुछ भी कहा है वह मार्मिक है। उनका कहना है कि यह अध्यात्म शास्त्र है, इसलिये इसमें अन्य विषयोंके कथनको विशेष अवकाश नहीं है । अध्यात्म शास्त्रका अर्थ हैं आत्माकी विविध अवस्थाओं और उनके मुख्य निमित्तोंका प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र । यह उसका व्यापक अर्थ है। वैसे जोवकी विविध अवस्थाओं में मूल वस्तुका ज्ञान करानेवाला शास्त्र ही अध्यात्म शास्त्र कहलाता है, परन्तु कार्य-कारणभावकी दृष्टिसे विचार करनेपर उन विविध अवस्थाओं और उनके मूल निमित्तोंका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका भी इसमें अन्तर्भाव हो जाता है । इस दृष्टि से विचार करनेपर जा चौदह मार्गणाओंमेंसे प्रारम्भकी चार मार्गणाओंको द्रव्य मार्गणायें कहते हैं वे सिद्धान्त ग्रन्थोंके अभिप्राय और उनकी वर्णनशैलीसे अनभिज्ञ हैं, यही कहना पडता है। सिद्धान्त ग्रन्थोंमें भाव मार्गणाओंका ही विवेचन किया गया है, यह बात खुद्दाबंधके चौदह मार्गणाओंका विवेचन करनेवाले सूत्रोंसे भी स्पष्ट जानी जाती है। यही कारण है कि यहां तेरह प्रकारके स्पर्शों का स्वरूप कह करके उनका विशेष व्याख्यान नहीं किया है। इस प्रकार स्पर्शनिक्षेपका कथन समाप्त होनेपर स्पर्श अनुयोगद्वारका कथन समाप्त हुआ। उत्तम व्रतधारी श्रेष्ठ मुनियोंने जिनकी स्तुति की है ऐसे मुनिसुव्रत नामक जिनेन्द्र देवको नमस्कार करके जिसके विविध अर्थ हैं, और जिसका विशद विवेचन अनेक ग्रन्थोंमें किया गया है, ऐसे इस कर्म अनुयोगद्वारका मैं ( वीरसेन स्वामो ) व्याख्यान करता हूं ॥१॥ कर्मका अधिकार है ॥१॥ 'कर्म नामका जो अनुयोगद्वार पहले कह आये हैं उसका कथन करते हैं' इस प्रकार 'कम्मे त्ति' इस सूत्र द्वारा अधिकारकी सम्हाल की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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