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________________ ( ३४५ पर्याअणुओगद्दारे केवलणाणपरूवणा केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? । ७९ । सुगममेदं पुच्छासुतं । केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एया चेव पयडी ।। ८० ।। कुदो ? बहूणं केवलणाणाणमभावादो । संपहि केवलणाणस्स लक्खणपरूवणट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि --- ५, ५, ८१. ) तं च केवलणाणं सगलं संपूण्णं असवत्तं * ॥ ८१ ॥ अखंडत्वात् सकलम् । कथमस्याखंडत्वम् ? समस्ते बाह्यार्थे अप्रवृत्तौ सत्यां खंडता । न च तदस्ति, विषयीकृताशेष त्रिकाल गोचरबाह्यार्थत्वात् । अथवा, कलास्तावदववा द्रव्य-गुण- पर्य्यय भेदावगमान्यथानुपपत्तितोऽवगतसत्त्वाः, सह कलाभिर्वर्त्तत इति सकलम् । अनन्तदर्शन- वीर्य विरति क्षायिक सम्यक्त्वाद्यनन्तगुणैः सम्यक् परस्परपरिहारलक्षणविरोधे सत्यपि सहानवस्थानलक्षणविरोधाभावेन पूर्णत्वात् सम्पूर्ण केवलज्ञानम्, सकलगुणनिधानमिति यावत् । सपत्नाश्शत्रवः कर्माणि न विद्यते सपत्नाः यस्मिन् केवलज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। ७९ ।। यह पृच्छासूत्र सुगम है । केवलज्ञानावरणीय कर्मको एक ही प्रकृति है ॥ ८० ॥ क्योंकि, केवलज्ञान बहुत नहीं हैं । अब केवलज्ञानका लक्षण कहने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं- वह केवलज्ञान सकल है, सम्पूर्ण है, और असपत्न है ।। ८१ ।। अखण्ड होने से वह सकल है । शंका -- यह अखण्ड कैसे है ? समाधान-- समस्त बाह्य अर्थ में प्रवृत्ति नहीं होनेपर ज्ञानमें खण्डपना आता है, सो वह इस ज्ञान में सम्भव नहीं है; इस ज्ञानके विषय त्रिकालगोचर अशेष बाह्य पदार्थ हैं । अथवा, द्रव्य, गुण और पर्यायोंके भेदका ज्ञान अन्यथा नहीं बन सकने के कारण जिनका अस्तित्व निश्चित है ऐसे ज्ञानके अवयवोंका नाम कला है; इन कलाओंके साथ वह अवस्थित रहता है इसलिए सकल है । ' सम् ' का अर्थ सम्यक् है, सम्यक् अर्थात् परस्परपरिहार लक्षण विरोध के होनेपर भी सहानवस्थान लक्षण विरोधके न होनेसे चूंकि यह अनंतदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति एवं क्षायिक सम्यक्त्व आदि अनंत गुणोंसे पूर्ण है; इसीलिये इसे संपूर्ण कहा जाता है । वह सकल गुणों का निधान है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सपत्नका अर्थ शत्रु है, केवलज्ञानके शत्रु कर्म हैं । वे इसके नहीं रहे हैं, इसलिए केवलज्ञान असपत्न हैं। उसने अपने प्रतिपक्षी संपुष्णं तु समग्गं केवलमसवत्त सव्वभावगयं 1 लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेयब्नं 1 गो. जी. ४५९. अ-आ-काप्रतिषु ' कलास्थावयवा तातो' कलास्था (स्तावद ) वयवा ' इति पाठ: 1 * अ-आ- काप्रतिषु 'सयत्नाः शत्रवः कर्म्मणि' ताप्रती ' सपत्नाश्शत्रवः, ' कर्मणि' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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