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________________ १४८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. कुदो? एक्को अट्ठावीससंतकम्मियएइंदियो मणुस्सेसु उववण्णो, गब्भाविअटुवस्साणमुवरि वेदगसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवण्णो, अणंताणुबंधि विसंजोइय दंसणमोहणीयमवसामिय पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण अपुव-अणियट्टि*-सुहमउवसंतो जादो, इरियावहकम्मस्स आदी टिदा । पुणो सुहुमो होदणंतरिदो । तदो बेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि अंतरिय सवजहण्णंतोमहत्तावसेसे सिज्झिदव्वए त्ति खीणकसाओ जादो। लद्धमंतरं इरियावहकम्मस्स । तदो जोगी अजोगी होदूण सिद्धो जादो। एवं गन्भादिअटुवस्सेहि एक्कारअंतोमहुत्तहिएहि ऊणउक्कस्सतसद्विदिमेत्तअंतरुवलंभादो। तवोकम्मस्स अंतर केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अतोमहत्तं । उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि किंचूणपुवकोडिपुधत्तेणहियाणि । तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मियएइंदियो मणुस्सेसु उववण्णो । गब्भादिअटुवस्साणमंतोमुत्तब्भहियाणमुवरि विसोहि पूरेदूण वेदगसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवण्णो । तवोकम्मस्स आदी द्विदा । तदो सव्वलहुमंतोमुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । तदो बेसागरोवमसहस्साणं पुवकोडिपुधत्तेणब्महियाणं सवजहण्णमंतोमहत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं संजमं च जुगनं पडिवण्णो । लद्धमंतरं तवोकम्मस्स । पुणो उवसमसम्मत्तद्धाए अब्भतरे आसाणं गंतूण मदो एइंदिययो जादो । एवं गम्भादिअट्ठवस्सेहि एकेन्द्रिय जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर वेदकसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ । अनन्तर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजन कर और दर्शनमोहनीयको उपशमा कर अनन्तर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके अपूर्वउपशामक, अनिवृत्तिउपशामक, सूक्ष्म उपशामक और उपशान्तकषाय हुआ । इसके ईर्यापथकर्मकी आदि दिखाई दी। फिर सूक्ष्मसाम्पराय होकर इसका अन्तर किय । अनन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर कालका अन्तर देकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहुर्त कालके शेष रहनेपर सिद्ध होगा, इसलिये क्षीणकषाय हुआ। इस प्रकार ईर्यापथकर्मका अन्तरकाल लब्ध होता है । अनन्तर योगी और अयोगी होकर सिद्ध हुआ। इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट त्रसस्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। तपःकर्मका अस्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जोवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्व आधक दो हजार सागर है । यथा-अट्ठाईस कर्मोंकी सत्तावालाकोई एक एकेन्द्रिय जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तका होनेपरविशुद्धिको प्राप्त होकर वेदकसम्यक्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ । इसके तपःकर्मका प्रारम्भ दिखाई दिया । अनन्तर सबसे लघ अन्तर्मुहर्त काल तक उसके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो उसका अन्तर किया। अनन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरप्रमाण कालमें सबसे जघन्य अन्तर्महर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्व और सयमको एक साथ प्राप्त हुआ। इस प्रकार तपःकर्मका अन्तरकाल लब्ध होता है । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर *प्रतिषु ' अणियट्ठी ' इति पाठ: 1. अ-आ-काप्रतिषु — विसेसोहिं ' इति पाठः 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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