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५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा
(१३३ क्खंधाणं ओरालियभावेण विणा एगसमयमच्छिय बिदियसमए ओरालियसरीरसरूवेण परिणदाणमेगसमयअंतरुवलंभावो। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। कुदो ? देवेण रइएण वा तिरिक्खेसु उववण्णण तत्थ उववादजोगेण गहिदोरालियसरीरपरमाणणं बिदियसमए णिज्जिण्णाणमाधाकम्मस्स आदी होदि । पुणो तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदि जाउक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणं पोग्गलपरियट्टाणं चरिमसमओ ति। तदुवरिमसमए पुव्वणिज्जिण्णओरालियणोकम्म. क्खंधेसु बंधमागदेसु लद्धमंतरं होदि । एवमाधाकम्मस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणमंतरुवलंभादो । णवरि तिणि समया ऊणाणि त्ति वत्तव्वं । किरियाकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । एवमिरियावथ तवोकम्माणं पि वत्तव्वं । समय रहकर दूसरे समयमें पुनः औदारिकरूपसे परिणत हो जाते हैं उनका एक समय अंतरकाल उपलब्ध होता है । उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनमें लगनेवाले कालके बराबर है, क्योंकि, जिस देव और नारकी जीवने तिर्यंचोंमें उत्पन्न होकर और वहां उपपादयोग द्वारा औदारिकशरीरके परमाणुओंको ग्रहण करके दूसरे समयमें उनकी निर्जरा की है उसके उन परमाणुओंके अधःकर्मका प्रारम्भ होता है। पश्चात् तीसरे समयसे उसका अन्तर होता है जो कि उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवे भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तनोंके अंतिम समय तक जाता है । इसके बाद अगले समयमें पहले निर्जीर्ण हए उन औदारिक नोकर्मस्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार अधःकर्मका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तनोंके जितने समय होते है उतना उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। इतनी विशेषता है कि इस अन्तरकालमेंसे तीन समय न्यून करके उसका कथन करना चाहिये । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। इसी प्रकार ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका भी अन्तरकाल कहना चाहिये ।
विशेषार्थ- यहां ओघसे छहों कर्मों के अन्तरकालका विचार किया गया है। प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीव और एक जीव दोनोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता, यह स्पष्ट ही है; क्योंकि संसारस्थ जीवके कोई न कोई योग और किसी न किसी कर्मका बंध उदय और सत्त्व निरंतर पाया जाता है । यद्यपि अयोगिकेवली गुणस्थानमें योगका अभाव हो जाता है पर यह जीव पुनः सयोगी नहीं होता, इसलिये अंतरकालके प्रकरणमें इसका ग्रहण नहीं होता है। अध:कर्मका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता, क्योंकि, अनन्त एकेन्द्रिय जीव तथा असंख्यात व संख्यात दूसरे जीव औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्धोंको निरन्तर ग्रहण कर उन्हें औदारिकशरीररूपसे परिणमाते रहते हैं। इस कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और
आप्रतौ 'ओदरियभात्रेण ', का-ताप्रत्योः 'ओदइयभावेण , इति पाठः । का-ताप्रत्यो: ' मंतरतुवलंभादो, इति पाठ:1
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