SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ ) ( ५, ४, ३१. निरयगदीए रइए पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं* पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं । किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । कुदो ? तिरिक्खो वा मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो । विस्संतो विसुद्धो सम्मत्तं पडिवण्णो । किरियाकम्मस्स आदी दिट्ठा। पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतरिदो । तदो मिच्छत्तेणेव आउअं बंधिदृण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो। लद्धमंतरं किरियाकम्मस्स । तदो मिच्छत्तं गंतूण मदो तिरिक्खो जादो । एवं छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणतेत्तीस सागरोवममेत्त किरिया कम्मुक्कस्संतरुवलंभादो । एवं सत्तमाए उत्कृष्ट अन्तरकाल कितना होता है, इसका सयुक्तिक मूलमें ही विचार किया है । उत्कृष्ट अन्तरकाल बतलाते समय वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण बतलाया है । मात्र इस कालमें से तीन समय कम किये हैं । ये तीन समय प्रारम्भके दो समय और अन्तका एक समय लेना चाहिये | अब रहे शेष तीन कर्म सो नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका भी अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता, क्योंकि, इन कर्मोंके धारक जीव निरन्तर पाये जाते हैं । इनका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, सम्यक्त्व, संयम और उपशान्तकषाय गुणस्थानका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही पाया जाता । इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है, क्योंकि, किसी जीवके सम्यक्त्व, संयम और उपशान्तकषाय कम अर्ध पुद्लगपरिवर्तत प्रमाण है, क्योंकि, किसी जीवके सम्यक्त्व, संयम और उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त होनेके बाद वह इन्हें यदि अधिक से अधिक काल तक न प्राप्त हो तो कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक नहीं प्राप्त होता । इसके बाद वह सम्यक्त्व और संयमको अवश्य ही प्राप्त होता है और यदि अनुकूलता हो तो उपशमश्रेणिपर भी तब आरोहण करता है । इस प्रकार यह सामान्यसे छह कर्मोंका अन्तरकाल होता है । नरकगति में नारकियोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि, अट्ठाईस कर्मोंकी सत्तावाला कोई एक तियंच या मनुष्य नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ । वहां छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ । पश्चात् विश्राम करके और विशुद्ध होकर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । क्रियाकर्मकी आदि दिखाई दी। पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसने क्रियाकर्मका अन्तर किया। और अन्तमें मिथ्यात्वके साथ ही आयुका बन्धकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकार क्रियाकर्मका अन्तरकाल प्राप्त होता है । तदनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर मरकर तिर्यंच हो गया। इस प्रकार क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर उपलब्ध होता है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवी में अन्तरकाल होता है । तथा इसी प्रकार प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ताप्रती ' णाणाजीवं ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International का - ताप्रत्यो: ' तदो' इत्येतत् पदं नास्ति 1 www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy