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________________ २२२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, २६. सण्णिचिदियपज्जत्तभासा*। सा विहा-भासा कुभासा चेदि । तत्थ कुभासाओ कीर पारसिय-सिंधल-ववरियादीणं विणिग्गयाओ सत्तसयभेदभिण्णाओ। भासाओ पुण अट्ठारस हवंति तिकुरुक-तिलाढ-तिमरहट्ठ-तिमालव-तिगउड-तिमागधभासभेदेण । एत्थ उवउज्जंतीगाहा तद विददो घण सुसिरो घोसो भासा त्ति छविहो सहो ।। ____सो पुण सद्दो तिविहो संतो घोरो य मोघो य* ॥१॥ एदेसि सोदिदियविसयाणं सहाणं सोदिदियस्स य संजोगादो जं पढममुप्पण्णं णाणपुट्ठ-पविट्ठोगाढअंगांगिभावगदसविसयं सो सोदिदियवंजणोग्गहो णाम । अण्णत्थुप्पण्णाणं छव्विहाणं पि सहाणं कण्णछिद्देसु पविसिय सोदिदियभावेण खओवसमं गवजीवपदेसेसु संबद्धाणं जं गहणं सो सोदिदियवंजणोग्गहो ति भणिदं होदि । सद्द-पोग्गला सगुप्पत्तिपदेसादो उच्छलिय दसदिसासु गच्छमाणा उक्कस्सेण जाव लोगंतं ताव गच्छति । कुदो एदं जव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो । ते कि सव्वे सद्द-पोग्गला लोगंतं गच्छंति आहो ण सवे इदि पुच्छिदे सव्वे ण गच्छंति, थोवा चेव इन्द्रियोंवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी भाषा अक्षरात्मक भाषा है । वह दो प्रकारकी हैंभाषा और कुभाषा। उनमें कुभाषायें काश्मीर देशवासी, पारसीक, सिंहल और वर्वरिक आदि जनोंके (मुखसे) निकली हुई सात सौ भेदोंमें विभक्त हैं। परन्तु भाषायें तीन कुरुक भाषाओं, तीन लाढ भाषाओं, तीन मरहठा भाषाओं, तीन मालव भाषाओं, तीन गौड भाषाओं, और तीन मागध भाषाओंके भेदसे अठारह होती है । यहां उपयुक्त गाथा शब्द छह प्रकारका है- तत, वितत, धन, सुषिर, घोष और भाषा । पुनः वह शब्द तीन प्रकारका है- प्रशस्त, घोर और मोघ ।। १ ।। श्रोत्र इन्द्रियके विषयभत इन शब्दों और श्रोत्र इन्द्रियके संयोगसे स्पृष्ट, प्रविष्ट और अवगाढ रूप अंगांगिभावको प्राप्त हुए शब्दको विषय करनेवाला जो सर्वप्रथम ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह है । जो छहों प्रकारके शब्द अन्यत्र उत्पन्न हुए हैं और जो कर्णप्रदेशोंमें प्रवेश करके श्रोत्रेन्द्रियभावरूपसे क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवप्रदेशोंसे सम्बद्ध हैं उनका जो ग्रहण होता है वह श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शब्दपुद्गल अपने उत्पत्तिप्रदेशसे उछलकर दसों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूपसे लोकके अन्त भाग तक जाते हैं। शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- वह सूत्रके अविरुद्ध व्याख्यान करनेवाले आचार्यों के वचनसे जाना जाता है । शंका- क्या वे सब शब्द-पुद्गल लोकके अन्त तक जाते हैं या सब नहीं जाते ? समाधान- सब नहीं जाते हैं, थोडे ही जाते हैं । यथा - शब्द पर्यायसे परिणत हुए * अक्षरीकृतः शास्त्राभिव्यंजकः संस्कृत-प्राकृतविपरीतभेदादार्य-म्लेच्छव्यवहारहेतुः . स. सि. ५-२४. त. रा. ५, २४, ३. अक्षरात्मकः संस्कृत-प्राकृतादिरूपेणार्थ-म्लेच्छभाषाहेतु 1 पंचा. ( ता. व. ) ७९. ताप्रती 'किर ' इति पाठ:1 प्रतिष' तिकूदुकतिलाद' इति पाठः । ४ प्रतिष घणसहो 'इति पाठः। काप्रती ' धोरो य मोघो य', तांप्रतो घोरो य मूढो य ' इति पाठः। ॐ काप्रती 'घड ' ताप्रती 'घट्ट ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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