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________________ ३५२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ८२. वग्गणासु अवणिदासु एगणवीसदिविधा पोग्गला होति । पादेक्कमणंतभेदा । अमुत्ता चउविहा-धम्मत्थियो अधम्मत्थिओ आगासस्थिओ कालो चेदि । कालो घणलोगमेत्तो। सेसा एयवियप्या। आगासो अणंतपदेसियो। कालो अपदेसियो। सेसा असंखेज्जपदेसिया। सुहुपयडीओ पुण्णं । असुहपयडीओ पावं । तत्थ घाइवउक्कं पावं। अघाइच उक्कं मिस्सं, तत्थ सुहासुहपयडीणं संभवादो। मिच्छत्तासंजम कसाय-जोगा आसवो। तत्थ मिच्छत्तं पंचविहं । असंजमो बादालीसविहो । वुत्तं च-- पंचरस-पंचवण्णा दोगंधा अट्ठफास सत्तसरा । मणसा चोद्दसजीवा बादालीसं तु अविरमणं । ३३ । अणंताणुबंधि-पच्चक्खाण-अपच्चक्खाग-संजलण*कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रदिअरदि-सोग-भय दुगुंछा-इत्थि-पुरिस-णqसयभेएण कसाओ पंचवीसविहो । जोगो पण्णरसविहो । आसवपडिवक्खो संवरो णाम । गुणसेडीए एक्कारसभेदभिण्णाए कम्मगलणं णिज्जरा णाम । जीव-कम्माणं समवाओ बंधो णाम । जीव-कम्माणं णिस्सेसविसिलेसो मोक्खो णाम । एदे सव्वे भावे जाणदि । समं अक्कमेण । एदं समग्गहणं केवलणाणस्स ध्रुवशून्यवर्गणाओंके निकाल देनेपर उन्नीस प्रकारके पुद्गल होते है और वे प्रत्येक अनन्त भेदोंको लिये हुए हैं। अमूर्त चार प्रकारके हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । काल घनलोकप्रमाण है, शेष एक एक है। आकाश अनन्तप्रदेशी है, काल अप्रदेशी है, और शेष असंख्यातप्रदेशी हैं। : शुभ प्रकृतियोंका नाम पुण्य है और अशुभ प्रकृतियोंका नाम पाप है। यहां घातिचतुष्क पाप रूप हैं। अघातिचतुष्क मिश्ररूप है, क्योंकि, इनमें शुभ और अशुभ दोनों प्रकृतियां सम्भव हैं। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये आस्रव हैं। इनमेंसे मिथ्यात्व पांच प्रकारका है । असंयम बयालीस प्रकारका है। कहा भी है 2 पांच रस, पांच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, सात स्वर, मन और चौदह प्रकारके जीव, इनकी अपेक्षा अविरमण अर्थात् इन्द्रिय व प्राणी रूप असंयम बयालीस प्रकारका है ॥ ३३॥ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ; संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ; हास्य, रति, अरति, शोक, भय. जुगुप्सा तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके भेदसे कषाय पच्चीस प्रकारकी है। योग पन्द्रह प्रकारका है । आस्रवके प्रतिपक्षका नाम संवर है। ग्यारह भेदरूप श्रेणिके द्वारा कर्मोंका गलना निर्जरा है । जीवों और कर्म-पुद्गलोंके समवायका नाम बन्ध है । जीव और कर्मका निःशेष विश्लेष होना मोक्ष है । इन सब भावोंको केवली जानते हैं । समं अर्थात् अक्रमसे । यहां जो 'सम' पदका ग्रहण किया है वह केवलज्ञान * पंचरस-पंचवण्णा दोगंधे अट्ठफास सत्तसरा। मणसा चोद्दसजीवा इंदिय पाणा य संजमो णेओ। मला. ५, २२१. - अ-आ-काप्रतिषु · संजुलण-' इति पाठ 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org. Jain Education International
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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