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________________ ५, ३, २४. ) फासाणुओगद्दारे फासफासो (२५ स्निग्धस्पर्शः रुक्षस्पर्शः शीतस्पर्शः उष्णस्पर्शश्चेति। स्पर्शभेदात्स्पर्शस्पर्शोऽपि अष्टधा भवतीत्यवगन्तव्यः । एत्थ केवि आइरिया कक्खडादिफासार्ण पहाणीकयाणं एगादिसंजोगेहि फासभंगे उप्पायंति, तण्ण घडदे; गुणाणं णिस्सहावाणं गुणेहि फासाभावादो। पहाणभावेण दव्वत्तमुवगयाणं फासो जदि इच्छिज्जदि तो रूव-रस-गंधादीणं पि फासेण होदव्वं ; पहाणभावेण दव्वभावुवगमणं पडि भेदाभावादो। होदु चे-ण, सुत्ते तहाणुवलंभादो तेरफासे मोत्तूण बहुफासप्पसंगादो च। तम्हा कक्खडं कक्खडेण फुसिज्जदे* इच्चादिभंगा एत्थ ण वत्तव्वा, दवफासे देसफासे च तेसिमंतभावादो। एसो तत्थ ण पविसदि, विसय-विसइभावप्पणादो। अधवा सुत्तस्स देसामासियत्ते णिक्खेवसंखाणियमो त्थि त्ति सगंतोविखत्तासेसविसेसंतराणमटण्णं फासाणं संजोएण दुसद-पंचवंचास भंगा उप्पाएयव्वा । और उष्णस्पर्श । इस प्रकार स्पर्श के भेदसे स्पर्शस्पर्श भी आठ प्रकारका होता है, ऐसा यही जानना चाहिये । यहां कितने ही आचार्य प्रधानताको प्राप्त हुए कर्कश आदि स्पर्शोंके एक आदि संयोगों द्वारा स्पर्शभंग उत्पन्न कराते हैं. परन्तु वे बनते नहीं; क्योंकि, गुण निस्वभाव होते हैं, इसलिये उनका अन्य गुणोंके साथ स्पर्श नहीं बन सकता । प्रधानरूपसे द्रव्यत्वको प्राप्त हुए इन गुणोंका यदि स्पर्श स्वीकार किया जाता है तो रूप, रस और गन्ध आदिका भी स्पर्श होना चाहिये, क्योंकि, प्रधानरूपसे द्रव्यपने की प्राप्ति के प्रति इनमें कोई अन्तर नहीं है । यदि कहा जाय कि ऐसा भी हो जावे । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, एक तो सूत्र में ऐसा कहा नहीं हैं और दूसरे ऐसा माननेपर तेरह स्पर्श न रहकर बहुतसे स्पर्श प्राप्त हो जायेंगे । इसलिये कर्कश कर्कशके साथ स्पर्श करता है, इत्यादि भंग यहां नहीं कहने चाहिये ; क्योंकि उनका द्रव्यस्पर्श और देशस्पर्शमें अन्तर्भाव हो जाता है । परन्तु इसका वहां अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, इसमें विषय-विषयिभावकी मुख्यता है । अथवा सूत्र देशामर्शक होता है, इसलिये निक्षेपोंकी संख्याका नियम नहीं किया जा सकता। अतएव अपने भीतर जितने विशेष प्राप्त होते हैं उन सबके साथ आठ स्पर्शोके संयोगसे दो सौ पचवन भंग उत्पन्न कराने चाहिये । विशेषार्थ- आगममें कर्कश आदि आठ स्पर्श माने गये हैं। इनका स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा जो स्पर्श होता है उसे स्पर्शस्पर्श कहते हैं। यद्यपि स्पर्शस्पर्श शब्दका, स्पर्शोका जो परस्परमें स्पर्श होता है उसे स्पर्शस्पर्श कहते हैं, एक यह अर्थ भी किया जा सकता है; पर इस अर्थके करनेपर सबसे बडी आपत्ति यह आती है कि स्पर्श गुणोंका अन्य गुणों के साथ होनेवाले स्पर्शको भी स्पर्शस्पर्श मानना पडेगा । यद्यपि यह कहा जा सकता है कि गुण निःस्वभाव होते हैं, इसलिये उनका परस्परमें स्पर्श नहीं बनता। परन्तु गुणको कथंचित् द्रव्य मान लेने पर इस आपत्तिका परिहार हो जाता है। इससे यद्यपि गुणका दूसरे गुणके साथ स्पर्श माननेपर जो आपत्ति प्राप्त होती है उसका परिहार हो जाता है, पर ऐसे स्पर्शको अन्ततः द्रव्यस्पर्शका *तापतौ 'पुसिज्जदि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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