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________________ ५, ५,४६. ) पडिअणुओगद्दारे अक्खरपमाणपरूवणा ( २५१ भावेण अणेगत्थे वट्टमाणाणं चण्णमक्खरागं कधयक्खरतं जुज्जदे ? ण, अणेगेसु अत्थेसु वट्टमाणगोसहस्स एयक्खरत्तुवलंभादो । ण खणभंगुरत्तणेण बहित्थवण्णेसु समुदाओ अस्थि ति णासंकणिज्ज, बज्झत्थवण्णजणिदअंतरंगवणेसु एगजीवदवम्मि देसभेदेण विणा वट्टमाणेसु वंजणपज्जायभावेण अंतोमुत्तमट्टिदेसु बज्झस्थविसयविण्णाणजणणक्खमेसु तदुवलंभादो । ण बज्झत्थवण्णेसु तदसंभवो चेव, कारणे कज्जवयारेण तत्थ वि तदुवलंभादो । पहि पढम-बिदियअक्खरभंगाणमेगवारेण आगमणे इच्छिज्जमाणे पढम-बिदियअक्खरसंखं विलिय विग करिय अण्णोण्णगुणे कदे चत्तारि होति । पुणो एत्थ एगरूवे अवणिदे पढम-बिदियअक्खराणमेगसंजोग-दुसंजोगेहि तिणि अक्खराणि होति । सुदणाणवियप्पा वि तत्तिया चेव ३, कारणभेदस्स कज्जभेदाविणाभावित्तादो । एदेण कारणेण विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं काऊण रूवणं. कीरदे । संपहि तदियक्खरे णिरूद्ध एगसंजोगेण एक्को भंगो १। पढम-तदिय*अक्खराणं दुसंजोगेण बिदियो भंगो२ । बिदियतदियअक्ख राणं दुसंजोगेण तदियो भंगो ३। पढम-बिदियतदियअक्खराणं तिसंजोगेण च उत्थमंगो एवं तदियअक्ख रस्स एग-दु:विसंजोगेहि शंका - अनुलोम और विलोम भावसे अनेक अर्थों में विद्यमान चार अक्षरोंके एक अक्षरपना कैसे बन सकता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, अनेक अर्थो में विद्यमान गो शब्दके एक अक्षरपना उपलब्ध होता है। क्षणभंगर होनेके कारण बाह्यार्थ वर्गों का समुदाय नहीं हो सकता, ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, बाह्यार्थ वर्णों से उत्पन्न उन अन्तरंग वर्गों में-- जो एक जीव द्रव्यमें देशभेदके विना विद्यमान हैं, जो व्यंजन पर्यायरूपसे अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थित रहते हैं, और जो बाह्यार्थ विषयक विज्ञानके उत्पन्न कराने में समर्थ हैं- समुदाय पाया जाता है। यदि कहा जाय कि यह तो अन्तरंग वर्गों में समुदाय हुआ, बाह्यार्थ वर्गों में वह तो असंभव ही है; सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कारण में कार्यका उपचार करनेसे उनमें भी वह पाया जाता है। अब प्रथम और द्वितीय अक्षरोंके भंगोंको एक साथ लानेकी इच्छा होनेपर प्रथम और द्वितीय अक्षरोंकी संख्याका विरलनकर और उसे दूना कर परस्पर गुणा करनेपर चार होते है। फिर इसमेंसे एक अकके घटा देनेपर प्रथम और द्वितीय अक्षरोंके एकसंयोग और द्विसंयोग रूपसे तीन अक्षर होते हैं और श्रुतज्ञानके विकल्प भी उतने ही होते हैं ३, क्योंकि कारणका भेद कार्यभेदका अविनाभावी होता है । इसी कारगसे विरलन कर और विरलित राशिप्रमाण दो अंकको स्थापित कर परस्पर गुणा करके एक कम करते हैं। अब तीसरे अक्षरके विवक्षित होनेपर एक संयोगसे एक भंग होता है १ । प्रथम और तृतीय अक्षरोंके द्विसंयोगसे दूसरा भंग होता है २ । द्वितीय और तृतीय अक्षरोंके द्विसंयोगसे तीसरा भंग होता है ३ । प्रथम, द्वितीय और तृतीय अक्षरोंके त्रिसंयोगसे चौथा भंग होता है ४ । इस प्रकार तृतीयके अक्षरके एक, दो और तीन सयोगोंसे भंग लब्ध होते हैं ४ । अब प्रथम ० ताप्रतो अणुलोमभावेण ' इति पाठ:1* काप्रती 'बहित्थमण्णेसु ण समृदाओ', ताप्रती बहित्थवण्णेसु (ण) समुदाओ , इति पाठः[ * का-ताप्रत्योः - भाविता ' इति पाठ। 1. ताप्रती रूवणं' इति पाठ 1* अ-ताप्रत्यो 'पढमविदिय' इति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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