SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. १६२ ) अष्पष्पणो पदाणमेवं चेव । णवरि इरियावथकम्मं णत्थि । किरियाकम्मस्स वि णत्थि अंतरं । एवं परिहार० । णवरि आधाकम्मस्स एगजीवं पड़च्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण वासपुधत्तब्भहियतीसवस्सेहि ऊणा पुव्वकोडी । तं जहा एक्को देवो वा णेरइयो वा वेदगसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउएसु मणुस्लेसु उववण्णो । तदो सव्वसोक्खसंजुत्तेण तीसवस्साणि पुरे गमेदूण तदो सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमाणगदरं पडिवण्णो । पुणो वासपुधत्तेण पच्चक्खाणणामधेय पुव्वं पढिवण केवलिपादमूले परिहारसुद्धिसंजमं पडिवण्णो । तस्स परिहार सुद्धिसंजदस्स पढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियखंधा तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमय पहुडि ताव अंतरं जाव परिहारसुद्धिसंजददुचरिमसमओ त्ति । तदो परिहारसुद्धिसंजदचरिमसमए पुग्वणिज्जिण्णोरालियसंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं । एवं वासyधत्तब्भहियतीसवरसेहि ऊणिया पुव्यकोडी आधाकम्मस्स उक्कस्समंतरं । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं पओअकस्म समोदाणकम्म तवोकम्माणं अंतरं केवfचरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं haचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । 1 छेदोपस्थापनाशुद्धि संयतोंका अपने अपने पदों का कथन इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्म नहीं है तथा क्रियाकर्मका भी अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धि संतोंके कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अधः कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक सयय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व अधिक तीस वर्ष न्यून पूर्वकोटि है यथा- एक देव या नारकी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । अनन्तर सब प्रकारके सुखसे संयुक्त होकर तीस वर्ष पहले बिताकर अनन्तर सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धि संयमोंमेंसे किसी एकको प्राप्त हुआ । पुनः वर्षपृथक्त्व काल द्वारा प्रत्याख्यान नामक पूर्वको पढकर केवली जिनके पादमूलमें परिहारशुद्धिसंयमको प्राप्त हुआ । उस परिहारशुद्धिसंयत के प्रथम समय में जो औदारिक स्कन्ध निर्जीर्ण हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समयसे अन्तर चालू होकर वह परिहारशुद्धिसंयत के द्विचरम समय तक होता है । अनन्तर परिहारशुद्धिसंयत के अन्तिम समय में पूर्व निर्जीर्ण औदारिक स्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार वर्षपृथक्त्व अधिक तीस वर्ष न्यून पूर्वकोटि अधः कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपः कर्मका अन्तरकाल कितना है । नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महिना है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं है । अधः कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । आ-काप्रत्योः ' पुव्वे ' ताप्रती पुव्वं इति पाठः ।। अ आ-कातिषु' पडिदूण' इति पाठ: । अप्रत जाव अंतरं ताव ' इति पाठ: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy