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________________ ३१४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५९. पणुवीस जोयणाणं ओही वेंतर-कुमारवग्गाणं। संखेज्जजोयणाणं जोदिसियाणं जहण्णोही ॥ १० ॥ __ वेंतरे ति* भणिदे अट्टविहा वाणवेंतरा घेत्तव्वा। कुमारा त्ति भणिदे वसविहभवणवासियदेवा घेत्तव्वा । एदेसि सव्वेसि पि खेत्तदो जहण्णोहिपमाणं पणुवीसघणजोयणाणि होदि, तेसिमोहिणिबद्धखेत्ते घणागारेण टुइदे पणवीसजोयणघणमेत्तखेत्तुवलंभादो। कालदो पुण एदे देसूर्ण दिवसं जाणंति, " दिवसंतो पण्णुवीसं तु" इदि वयणादो । जोइसियाणं खेत्तदो जहण्गोहिपमाणं संखेज्जजोयघणपमाणं होदि । णवरि वेंतरजहण्णोहिखेत्तादो जोइसियाणं जहण्णोहिखेतं संखेज्जगुणं। कुदो? जोइसियजहण्णोहिणिबद्धखेते घणागारेण टुइदे पणु-- वीसजोयणाणि होति त्ति अभणिदूण संखेज्जाणि जोयणाणि होति त्ति वयगादो। होतं पि पुग्विल्लखेत्तादो एवं खेत्तं संखेज्जगुणं कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो । एदेसि व्यन्तर और भवनवासियोंका जघन्य अवधिज्ञान पच्चीस घनयोजनप्रमाण होता है और ज्योतिषियोंका जघन्य अवधिज्ञान संख्यात योजनप्रमाण होता है ।१०। 'व्यन्तर' ऐसा कहनेपर आठ प्रकारके वानव्यन्तरोंका ग्रहण करना चाहिए । 'कुमार' ऐसा कहनेपर दस प्रकारके भवनवासी देवोंका ग्रहण करना चाहिए। क्षेत्रकी अपेक्षा इन सबके ही जघन्य अवधिज्ञानका प्रमाण पच्चीस घनयोजन होता है, क्योंकि, उनके अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्रको घनाकाररूपसे स्थापित करनेपर पच्चीस योजनधनप्रमाण क्षेत्र उपलब्ध होता है। कालकी अपेक्षा तो ये कुछ कम एक दिनकी बात जानते हैं, क्योंकि 'दिवसंतो पण्णुवीसं' ऐसा सूत्रवचन है । क्षेत्रकी अपेक्षा ज्योतिषी देवोंके जघन्य अवधिज्ञानका प्रमाण संख्यात घनयोजनप्रमाण होता है। इतनी विशेषता है कि व्यन्तरोंके जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रसे ज्योतिषियोंके जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र संख्यातगुणा है, क्योंकि, ज्योतिषियोंके जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रको घनाकार रूपसे स्थापित करनेपर वह 'पच्चीस योजन होता है ' ऐसा न कहकर 'संख्यात योजन होता है ' ऐसा कहा है । शंका-- यद्यपि ऐसा है, तथापि पहलेके क्षेत्रसे यह क्षेत्र संख्यातगुणा है, यह किस प्रमाणसे जानते हो? समाधान-- गुरुके उपदेशसे जानते हैं । X षट्खं. पु. ९, पृ. २५ मला. १२-१०९. असुरकूमारा णं भंते? ओहिणा केवइयं खेतं जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहन्नेणं पणवीसं जोअणाई उक्कोसेणं असंखेज्जे दीव-समुद्दे ओहिणा जाणंति पासंति । नागकुमारा णं जहन्नणं पणवीसं जोअगाई, उक्कोसेणं संखेज्जे वीव-समझे ओहिणा जाणंति पासंति। एवं जाव थणियकुमारा 1 xxxx वाणमंतरा जहा नागकुमारा। xxxx जोइसिया णं भंते ! केवतितं खेत्त ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहन्नेणं संखेज्जे दीव-समद्दे, उक्कोसेण वि संखेज्जे दीव-समद्दे 1 प्रज्ञापना ३३, ३-४. पणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसिं। विहोऽवि जोइसाणं संखेज्ज ठिई विसेसेणं 11 वि. भा. ७०४. * का-ताप्रत्योः ' वेंतरित्ति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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