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________________ ५, ५, १०. ) पडिअणुओगद्दारे ठवणपयडिपरूवणा (२०१ भंगा संभवंति? ण एस दोसो, एयस्स गोसदस्स सग्गादिअणेगेसु अत्थेसु उत्तिदसणादो अनोपयोगी श्लोकः- वाग्दिाभ्या०* ॥१॥ होदु एक्कस्स सद्दस्स बहुसु अत्थेसु कमेण वुत्ती, ण अक्कमेण; वृत्तिविरोहादो। ण एस दोसो, पासादसहस्स अक्कमेण अणेगेसु वट्टमाणस्स उवलंभादो।। जा सा ट्ठवणपयडी णाम सा कट्टकम्मेस वा चित्तकम्मसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे ट्ठवणाए विज्जति पगवि त्ति सा सव्वा ट्ठवणपयडी णाम ॥ १० ॥ जा सा ढवणपयडी णाम तिस्से अस्थपरूवणं कस्सामो-का दुवणा णाम? सोऽयमित्यभेदेन स्थाप्यतेऽन्योऽस्यां स्थापनयेति प्रतिनिधिः स्थापना। सा दुविहा सन्भावासभावट्ठवणाभेदेण। तत्थ सन्मावटवणाए आहारपरूवणा कीरदे-कट्ठेसु जावोघडिवपडि. समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक गो शब्दकी स्वर्ग आदि अनेक अर्थों में प्रवृत्ति देखी जाती है । यहां उपयोगी श्लोक वचन, दिशा . . . . . ये गो शब्दके एकार्थवाची नाम है ॥ १॥ शंका- एक शब्दकी क्रमसे अनेक अर्थों में वृत्ति भले ही हो, किन्तु वह अक्रमसे नहीं हो सकती; क्योंकि अक्रमसे वृत्ति मानने में विरोध आता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अक्रमसे अनेक अर्थों में विद्यमान प्रासाद शब्द उपलब्ध होता है। स्थापनाप्रकृति यथा- काष्ठकोंमें, चित्रकर्मों में, पोत्तकर्मोमें, लेप्यकर्मोंमें लयनकर्मोंमें, शैलकर्मोमें, गृहकर्मोमें भित्तिकर्मोमें, दन्तकर्मोंमें, भेंडकर्मोंमें तथा अक्ष या वराटक और इनको लेकर अन्य जो भी 'प्रकति ' इस प्रकार अभेदरूपसे स्थापना अर्थात् बुद्धिमें स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाप्रकृति है ॥ १०॥ जो स्थापनाप्रकृति है उसके अर्थका विवरण करते हैं। शंका- स्थापना किसे कहते हैं ? समाधान- 'वह यह है ' इस प्रकार अभेदरूपसे जो अन्य पदार्थ विवक्षित वस्तुमें प्रतिनिधिरूपसे स्थापित किया जाता है वह स्थापना है । वह दो प्रकारकी है- सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना । उनमेंसे पहले सद्भावस्थापनाके आधारका कथन करते हैं- काष्ठोंमें जो द्विपद, चतुष्पद, पादरहित या बहुत पादवाले *काप्रतौ वाग्दिग्भ्यां ' इति पाठ: 1 वाचि वारि पशी भूमौ दिशि लोम्नि पवौ दिवि 1 विशिखे दीघितो दृष्टावेकादशसु गोर्मत. ।। अने. नाम. २६. गौरुदके दृशि 1 स्वर्गे दिशि पशौ रश्मौ बजे भूमाविषो गिरि 1 अनेकार्थसंग्रह १-६. स्वर्गेषु-पशु-वाग्वज-दिड्नेत्र-वृणि-भू-जले 1 लक्ष्यदृष्टया स्त्रियां पुंसि , .. ll अमर. ( नानार्थवर्ग ) ३०.४ षट्खं. पु. ९, पृ. २४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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