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________________ ३७८ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ५, १२० एदस्स सुत्तस्स अत्थवरूवणा कीरदे । तं जहा- उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेसवजहण्णोगाहगाए सुहुमणिगोदअपज्जत्तो विग्गहगदीए मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ एगो मणुसगइपाओग्गाणुपुव्विवियप्पो लब्मदि । किफला एसा पयडी ? जहणो गाहाए अपुव्वसंठाणणिष्पायणफला । खेत्तंतरगमणफला त्ति किरण वुच्चदे ? ण, आणपुवि उदयाभावेण उजुगदीए गमणाभावप्यसंगादो। पुणो बिदिए सुहुमणिगोदअपज्जत्तजीवे जहण्णोगाहणाए विग्गहगदीए मणुस्सेसु उववण्णे बिदिओ मणुसदिपाओग्गाणुपुव्विणामाए वियप्पो होदि । पुणो तदिए सुहुमणिगोदअपज्जतजीवे जहण्णोगाहणाए अलद्धपुच्वेण महायारेण मणुस्सेसु उववण्णे* तदिओ मणुसगदिपाओग्गाणुपुवीए वियप्पो होदि, अण्णहा अपुव्वसुहागारुप्पत्तिविरोहादो । ण च कज्जभेदादो कारणभेदो असिद्धो, अकारणकज्जुप्पत्तिप्पसंगादो । एदं सव्वजहण्णोगाहणं निरुभिऊण अलद्धपुव्वणाणाविहमुहागारेहि मणुस्सेसु मारणंतियं करेमाण मणिगोदजीवाणं मणुसगइपाओग्गाणुपुव्विपयडिवियप्पा उप्पादेदव्वा जाव पणदालीस जोयणसयस हसबाहल्लाणं तिरियपदराणं जत्तिया आगासपदेसा तत्तिया वियप्पा लद्धा त्ति - इस सूत्र के अर्थका कथन करते हैं। यथा उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाग सबसे जघन्य अवगाहनाके द्वारा सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव विग्रहगतिसे मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । यहां मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका एक विकल्प प्राप्त होता है । शंका- इस प्रकृतिका क्या फल है ? समाधान- उसका फल जघन्य अवगाहना के द्वारा अपूर्व संस्थानोंको निष्पन्न कराना है । शंका- क्षेत्रान्तर में ले जाना, यह इस प्रकृतिका फल क्यों नहीं कहते ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऋजुगतिमें आनुपूर्वीका उदय नहीं होता, अतएव वहां ऋजुगति से अन्य गति में गमन के अभावका प्रसंग आता है । पुनः दूसरे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जघन्य अवगाहनाके साथ विग्रहगतिसे मनुष्यों में उत्पन्न होनेपर दूसरा मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका विकल्प होता है । पुनः तीसरे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जघन्य अवगाहनाके साथ अलब्धपूर्व मुखाकार के द्वारा मनुष्यों में उत्पन्न होनेपर तीसरा मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका विकल्प होता हैं, क्योंकि, अन्यथा अपूर्व मुखाकारकी उत्पत्ति होने में विरोध आता है । यदि कहो कि कार्यभेदसे कारणमें भेद मानना असिद्ध है, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, इस तरह कारणके विना ही कार्यकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है । सबसे जवन्य इस अवगाहनाका आलम्बन लेकर अलब्धपूर्व नानाविध मुखाकारोंके साथ मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके पैंतालीस लाख योजन बाहल्य रूप तिर्यक्प्रतरोंके जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने विकल्प प्राप्त होनेतक मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृति के विकल्प उत्पन्न कराने चाहिए । यहां जघन्य अवगाहनाका अ-आ-ताप्रतिषु 'णिरंभिऊण' इति पाठ: । अ-आ 'का-ताप्रत्योः ' उववण्णो इति पाठ । काप्रतिषु ' पुव्विवियप्पा ' इति पाठ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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