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________________ ३६८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, १०७. एवाणि सुत्ताणि सुगमाणि । जं तं सरीरसंठाणणामं तं छविहं- समचउरसरीरसंठाणणामं णग्गोहपरिमंडलसरीरसंठाणणाम सादियसरीरसंठाणणामं खुज्जसरीरसंठाणणामं वामणसरीरसंठाणणामं हुंडसरीरसंठाणणामं चेदि* ॥१०७ चतुरं शोभनम्, समन्ताच्चतुरं समचतुरम्, समानमानोन्मानमित्यर्थः ।समचतुरं च तत् शरीरसंस्थानं च समचतुरशरीरसंस्थानम्।तस्य संस्थानस्य निर्वर्तकं यत् कर्म तस्याप्येषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात् । न्यग्रोधो वटवृक्षः, समन्तान्मंडलं परिमण्डलम्, न्यग्रोधस्य परिमण्डललिव परिमण्डलं यस्य शरीरसंस्थानस्य तन्न्यग्रोधपरिमंडलशरीरसंस्थानं नाम । अधस्तात् श्लक्षणं उपरि विशालं यच्छरीरं तन्यग्रोधपरिमंडलशरीरसंस्थानं नाम । एतस्य यत् कारणं तस्याप्यषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात् । स्वातिर्वल्मीकः, स्वातिरिव शरीरसंस्थानं स्वातिशरीरस्थानं । एतस्य यत् कारणं कर्म तस्याप्येषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात् । दीर्घशा कुब्जशरीरम, कुब्जशरीरस्य संस्थान कुब्जशरीरसंस्थानम्। एतस्य यत् कारणं कर्म तस्याप्येतदेव नाम, कारणे कार्योपचारात्। ये सूत्र सुगम हैं। जो शरीरसंस्थान नामकर्म है वह छह प्रकारका है - समचतुरशरीरसंस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थान, स्वातिशरीरसंस्थान, कुब्जशरीरसंस्थान, वामनशरीरसंस्थान और हुण्डशरीरसंस्थान नामकर्म ।। १०७॥ ___चतुरका अर्थ शोभन है, सब ओरसे चतुर समचतुर कहलाता है । समान मान और उन्मानवाला, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। समचतर ऐसा जो शरीरसंस्थान वह समचतरशरीरसंस्थान है । उस संस्थानका निर्वर्तक जो कर्म है उसकी भी कारणमें कार्यका उपचार करनेसे यही संज्ञा होती है । न्यग्रोधका अर्थ वटका वृक्ष है, और परिमण्डलका अर्थ है सब ओरका मंडल न्यग्रोधके परिमण्डलके समान जिस शरीरसंस्थानका परिमण्डल होता है वह न्यग्रोधपरिमण्डल शरीरसंस्थान है। जो शरीर नीचे सूक्ष्म और ऊपर विशाल होता है वह न्यग्रोधपरिमण्डल रसंस्थान कहलाता है इसका कारण जो कर्म है उसकी भी कारणमें कार्यका उपचार होनेसे यही संज्ञा है। स्वातिका अर्थ वल्मीक अर्थात वामी है। स्वातिके समान जो शरीरसंस्थ होता है वह स्वातिशरीरसंस्थान कहलाता है इस शरीरका कारण जो कर्म है उसकी भी यही संज्ञा है, क्योंकि, कारणमें कार्य का उपचार किया गया है । जिस शरीरकी शाखायें दीर्घ हों वह कुब्जशरीर है, कुब्जशरीरका जो संस्थान है वह कुब्जशरीरसंस्थान है । इसका कारण जो कर्म है उसका भी यही नाम है, क्योंकि, कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। वामन शरीरका जो संस्थान है वह वामनशरीरसंस्थान है, अर्थात् जिसकी शाखायें हृस्व प्रतिषु 'समचउरससरीर-' इति पाठः 1 *षट्खं जी. चू. १, ३४. ॐ काप्रती वाक्यमिदं त्रुटितं जातम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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