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________________ ५, ५, ८२.) अणुओगद्दारे केवलणाणपरूवणा ( ३४७ नाम । अप्पिदगदोदो अण्णगदीए समुप्पत्ती उववादो णाम । जीवाणं विग्गहाविग्गहसरूवेण आगमणं गमणं चयणमुववादं च जाणदि त्ति भणिदं होदि । तहा पोग्गलाणमागमणं गमणं चयण मुववादं च जाणदि । पोग्गलेसु अप्पिदपज्जाएण विगासो चयणं, अण्णपज्जाएण परिणामो उववादो णाम । धम्माधम्म - कालागासाणं चयणमुववादं च जाणदि, तेसि गमणागमणाभावादो । लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते अस्मिन् जीवादयः पदार्था इति आगासो चेव लोगो त्ति । तेण आधेये आधारोवयारेण धम्मादीणं पि लोगत्तसिद्धीए । बन्धनं बन्धः, बद्ध्यते अनेनास्मिन्निति वा बन्धः । सो च बंधो तिविहो - जीवबंधो पोग्गलबंधो जीव-पोग्गलबंधो चेदि । एगसरीरद्विदाणमणंताणंताणं णिगोदजीबाण अण्णाoणबंध सो जीवबंधो णाम । दो- तिणिआदिपोग्गलाणं जो समवाओ सो पोग्गलबंधो णाम । ओरालिय- वे उब्विय आहार- तेया कम्मइयवग्गणाणं जीवाणं च जो बंधो सो. जीवपोग्गलबंधो णाम । जेण कम्मेण जीवा अनंताणंता एक्कम्मि सरीरे अच्छंति तं कम्मं जीवबंध णाम । जेण निद्ध-ल्हुक्खादिगुणेण पोग्गलाणं बंधी होदि सो पोग्गलबंधो णामः । जेहि मिच्छत्तासंजम कसाथ जोगादीहि जीव-पोग्गलाणं बंधो होदि सो जीव-पोग्गल - गंधो णाम । एदं गंध पि सो भयवंतो जाणदि । विरह होना चयन है । विवक्षित गतिसे अन्य गति में उत्पन्न होना उपपाद है । जीवोंके विग्रहके साथ तथा विना विग्रहके आगमन, गमन चयन और उपपादको जानते हैं; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा पुद्गलोंके आगमन, गमन, चयन और उपपादको जानते हैं । पुद्गलोंमें विवक्षित पर्यायका नाश होना चयन है। अन्य पर्यायरूपसे परिणमना उपपाद है । धर्म, अधर्म, काल और आकाशके चयन और उपपादको जानते हैं, क्योंकि, इनका गमन और आगमन नहीं होता । जिसमें जिवादिक पदार्थ लोके जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसकी लोक संज्ञा है । यहां ' लोक ' शब्दसे आकाश लिया गया है । इसलिए आधेय में आधारका उपचार करनेसे धर्मादिक भी लोक सिद्ध होते हैं । बंधने का नाम बंध है अथवा जिसके द्वारा या जिसमें बंधते हैं उसका नाम बंध है । वह बंध तीन प्रकारका है- जीवबंध, पुद्गलबंध और जीव- पुद्गलबंध । एक शरीरमें रहनेवाले अनन्तानन्त निगोद जीवोंका जो परस्पर बंध है वह जीवबंध कहलाता है। दो, तीन, आदि पुद्गलों का जो समवाय संबंध होता है वह पुद्गलबंध कहलाता है । तथा औदारिक वर्गणाएं, वैक्रियिक वर्गणाएं, आहारक वर्गणाएं, तैजस वर्गणाएं और कार्मण वर्गणाएं, इनका और जीवोंका जो बंध होता है वह जीव पुद्गलबंध कहलाता है । जिस कर्मके कारण अनन्तानन्त जीव एक शरीर में रहते हैं उस कर्मकी जीवबंध संज्ञा है जिस स्निग्ध और रूक्ष आदि गुणके कारण पुद्गलोंका बंध होता है उसकी पुद्गलबंध संज्ञा है । जिन मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग आदिके निमित्तसे जीव और पुद्गलोंका बन्ध होता है वह जीव-पुद्गलबन्ध कहलाता है । इस बन्धको भी वे भगवान् जानते हैं । का तात्यो:'-मागमणं चयण-' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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