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________________ २६८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ४८ णाम सगलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागो । तम्हि मप्पण्णे संखेज्जभागवड्डि· संखेज्जगुणवड्ढीओ चेव होंति, ण छव्विहवड्ढीओ; एगक्खरणाणेण संजादबलस्स छव्विहafsढविरोहादो । अक्खरणाणादो उवरि छव्विहवड्ढि परूविदवेयणा वक्खाणेण सह किष्ण विरोहो ? ण, भिण्णाहिष्वायत्तादो । एयक्खरक्खओवसमादो* जेसिमाइरियामहिपाएग उवरिमक्खओवसमा छव्विहवड्ढीए वड्ढिदा अत्थि तमस्सिय तं वक्खाणं तत्थ परूविदं । एगक्खरसुदणाणं जेसिमाइरियाणमहिप्पाएण सयलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागो चेव ते सिम हिप्पाएणेदं वक्खाणं । तेण ण दोष्णं विरोहो । समाधान नहीं, क्योंकि, अक्षरज्ञान सकल श्रुतज्ञानके संख्यातवें भाग प्रमाण होता है । उसके उत्पन्न होनेपर संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि हीं होती हैं। छह प्रकारकी वृद्धियां नहीं होती, क्योंकि, एक अक्षररूप ज्ञानके द्वारा जिसे बलकी प्राप्ति हुई है उसकी छह प्रकारकी वृद्धि मानने में विरोध आता है । शंका - अक्षरज्ञानके ऊपर छह प्रकारकी वृद्धिका कथन करनेवाले वेदना अनुयोगद्वार व्याख्यानके साथ इस व्याख्यानका विरोध क्यों नहीं होता है ? - समाधान - नहीं, क्योंकि, उसका इससे भिन्न अभिप्राय है । जिन आचार्योंके अभिप्रायानुसार एक अक्षर के क्षयोपशम से आगे के क्षयोपशम छह वृद्धियों द्वारा वृद्धिको लिए हुए होते हैं उन आचार्यों के अभिप्रायको ध्यान में रख कर वेदना अनुयोगद्वार में वह व्याख्यान किया है। किंतु जिन आचार्य अभिप्रायानुसार एक अक्षर श्रुतज्ञान सकल श्रुतज्ञानके संख्यातवें भागप्रमाण ही होता है उन आचार्यों के अभिप्रायानुसार यह व्याख्यान किया है । इसलिये इन दोनों व्याख्यानों में कोई विरोध नहीं है । विशेषार्थ - यहां अक्षरज्ञानके ऊपर ज्ञानके विकल्प किस क्रमसे उत्पन्न होते हैं, इस बातका विचार किया गया है । एक मत यह है कि अक्षरज्ञानके आगे भी षड्गुणी वृद्धि होती है । इस मतको मानने पर दूसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति युगपत् न होकर अनन्तभागवृद्धि, असं - या भागवृद्धि आदि के क्रमसे ही होगी । और दूसरा मत है कि एक अक्षरज्ञानके आगे दूसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति युगपत् होती है । इस मतके माननेपर एक अक्षरज्ञानके आगे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यात भागवृद्धि ये दो वृद्धियां ही सम्भव हैं । उदाहरणार्थ- प्रथम अक्षरज्ञान के बाद दूसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति होनेपर संख्यातगुणवृद्धि होती है और दो अक्षरज्ञानोंके ऊपर तीसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति होनेपर संख्यात भागवृद्धि होती है। इस प्रकार ये दो मत हैं । सूत्रकारने अक्षरश्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां है' ऐसा प्रश्न करनेपर ' संख्यात प्रकृतियां हैं ' ऐसा समाधान किया है, इसलिए यहांपर वीरसेन स्वामीने इसके अनुरूप मतका संकलन किया है । पर इसके सिवा इस विषय में एक दूसरा भी मत उपलब्ध होता हैं, यह दिखलानेके लिए उसका सकलन वेदना अनुयोगद्वारमें किया है । " अतो ' खओवसमाणदो, काप्रती 'खओवसमासो, ताप्रतौ' क्खओवसमासो (दो) ' इति पाठ: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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