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________________ ३१६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५,५९. ति सुत्तणिद्देसादो । सहस्सादो कोडी संखेज्जगुणा त्ति कादूण असुरोहिखेतं सेसोहि खेत्तादो संखेज्जगुणत्तणेण णवदिति भणिदं होदि । असुराणमक्कस्सकालो असंखेज्जाणि वस्साणि होदि । सेसाणं जोविसंताणं पि देवाणं उक्कस्सओहिकालो असंखेज्जाणि वस्ताणि होदि । वरि असुरुक्कस्सकालादो सेसजोदिसंताणं देवाणमुक्कस्सो. हिकालो संखेज्जगुणहीणो । कुदो एदमवगम्मदे ? गुरुवदेसावो । कि च-- भवणवासियदेवा उक्कस्सेण पेक्खंता उवरि जाव मंदरचलियचरिमं ताव पेवखंति । संपहि कप्पवासियाणमोहिणाणविसयपरूवणटुमुत्तरगाहासुत्तं भणदि-- सक्कीसाणा पढमं दोच्चं तु सणक्कुमार-माहिंदा । तच्चं तु बम्ह-लंतय सुक्क-साहस्सारया चोत्थं ॥ १२ ॥ सक्कीसाणा सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवा सगविमाणउवरिमतलमंडलप्पहुडि जाव 'पढम' पढमपुढविहेद्विमतले ति ताव दिवड्डरज्जुआयदं एगरज्जवित्थारखेत्तं पस्संति । करोड संख्यातगुणा होता है, ऐसा समझकर असुरोंके अवधिज्ञानका क्षेत्र शेष देवोंके अवधिज्ञानके क्षेत्रसे संख्यातगुणा जाना जाता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । असुरोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात वर्ष होता है तथा ज्योतिषियों तक शेष देवोंका भी उत्कृष्ट अवधिज्ञान संबंधी काल असंख्यात वर्ष होता है । इतनी विशेषता है कि असुरोंके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा ज्योतिषियों तक शेष देवोंके अवधिज्ञानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा हीन होता है । शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- वह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। इसके अतिरिक्त भवनवासी देव ऊपर देखते हुए उत्कृष्ट रूपसे मेरुकी चूलिकाके अन्तिम भाग तक देखते हैं । अब कल्पवासियोंके अवधिज्ञानके विषयका कथन करनेके लिए आगेका गाथासूत्र कहते है-- सौधर्म और ईशान कल्पके देव पहिली पृथिवी तक जानते हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके देव दूसरी पथिवी तक जानते हैं। ब्रह्म और लान्तव कल्पके देव तीसरी पथिवी तक जानते हैं। तथा शुक्र और सहस्रार कल्पके देव चौथी पृथिवी तक जानते हैं ॥ १२ ॥ 'सक्कीसाणा' अर्थात् सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अपने विमानके उपरिम तलमंडलसे लेकर प्रथम पृथिवीके नीचेके तल तक डेढ राजु लम्बे और एक राजु विस्तारवाले अ-आ-काप्रतिषु ' -गुणत्तणे णव्यदि ' इति पाठः । ताप्रती 'वोत्थी (चोथि) ' इति पाठः । षट्खं. पु. ९, पृ. २६. सक्कीसाणा पढमं बिदियं तु सणक्कुमार-माहिंदा 1 बंभालंतव तदियं सुक्क-सहस्सारया चउत्थी दु। मूला. १२-१०७. ति. प. ८-६८५. * सोहम्मगदेवा णं भंते ! केवतितं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगलस्स असंखेज्जदिभागं, उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए हिटिल्ले 1 चरमते, तिरियं जाव असंखिज्जे दीव-समुद्दे, उडुढं जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासं । एवं ईसाणदेवा वि 1 प्रज्ञापना ३३-४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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