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________________ ५, ३, ३२. ) फासाणुओगद्दारे भावफासो ( ३५ जंतादीणं फासववएसो त्ति भणिदे कारणपरूवणट्टमाह - ' भवियो फुसणदाए णो य पुण ताव तं फुसदि' भवियो जोग्गो पुसणदाए पासस्स णो पुण ताव तं इच्छिददव्वं फुसदि तस्स भवियफासो त्ति सण्णा । एवं भवियफासो गदो । जो सो भावफासो णाम ॥ ३१ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो उवजुत्तो पाहुडजाणओ सो सव्वो भावफासों णाम ।। ३२ ॥ फासपाहुडं जादूण जो तत्थ उवजुत्तो सो भावफासो त्ति घेत्तव्वो । एदं सुत्तं देसामा सयं, तेज आगमेण विणा पासुवजोगजुत्तो जीव-पोग्गलादिदव्वाणं णाणादिभावेहि फासो य भावफासोत्ति घेत्तव्वो । एवं भावफासो गदो । करने के लिये कहा है कि 'भवियो फुसणदाए णो य पुण ताव तं फुसदि ' । अर्थात् जो स्पर्शन के योग्य तो है, परन्तु उस इच्छित वस्तुको स्पर्श नहीं करता उसकी 'भव्यस्पर्श' सज्ञा है । इस प्रकार भव्यस्पर्शका कथन समाप्त हुआ । विशेषार्थ - जो पर्याय भविष्य में होनेवाली होती है उसे भव्य या भावी कहते हैं। यहां स्पर्शका प्रकरण है, इसलिये भव्यस्पर्शका यह अर्थ होता है कि जो भविष्य में स्पर्श पर्याय से युक्त होगा वह भव्यस्पर्श है । इसके उदाहरण स्वरूप सूत्र में विष व यन्त्रादिक पदार्थ लिये गये हैं । इन पदार्थों का निर्माण मुख्यतया अन्य जीवोंको पकड़नेके लिये किया जाता है, इसलिये इनकी भव्यस्पर्श संज्ञा होती है । इसी प्रकार कारण में कार्यका उपचार करके इन विषादिकके निर्माता और इन्हें इच्छित स्थानपर रखनेवाले भी भव्य स्पर्श कहलाते हैं । द्रव्य निक्षेपमें आगे होने वाली पर्याय और उसके कारण दोनोंका ग्रहण होता है । उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिये 1 अब भावस्पर्शका अधिकार है ॥ ३१ ॥ इसका अर्थ कहते हैं जो स्पर्शप्राभृतका ज्ञाता उसमें उपयुक्त है वह सब भावस्पर्श है ॥ ३२ ॥ स्पर्शप्राभृतको जानकर जो उसमें उपयुक्त है वह सब भावस्पर्श है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिये जो आगमके विना स्पर्श के उपयोग से युक्त है और जो जीव, पुद्गल आदि द्रव्योंका ज्ञानादि भावों द्वारा स्पर्श होता है वह भावस्पर्श है; ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ - आगम और नोआगम के भेदसे भावनिक्षेप दो प्रकारका होता है। भावस्पर्श में ये दोनों भेद विवक्षित हैं। जो स्पर्शप्राभृतका ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त है वह पहला भावस्पर्श है, और जो स्पर्शप्राभृतका ज्ञाता नहीं भी है, किन्तु स्पर्शरूप उपयोग से युक्त है वह दूसरा भावस्पर्श है । तथा जीव-पुद्गलादि द्रव्योंका जो ज्ञान आदि अपने अपने भावोंके द्वारा स्पर्श होता है वह भी दूसरा भावस्पर्श है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यद्यपि सूत्र में प्रथम प्रकारके भावस्पर्शका ही ग्रहण किया है, पर सूत्रको देशामर्शक मानकर यहां भावस्पर्श के अन्य भेदों का भी विवेचन किया गया है । इस प्रकार भावस्पर्शका कथन समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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