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________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे अत्थोग्गहावरणीयपरूवणा ( २२९ गहो णाम एत्थ अद्धाण परूवणा किमलृ ण कदा ? ण, सुदाणुभूदेसु दम्वेसु लोगंतरट्रिदेसु वि अत्थोग्गहो ति कारणेण अद्धाणणियमाभावादो। एदस्स जमावारयं कम्मं तं णोइंदियअत्थोग्गहावरणीयं णाम । उत्तं च -- चत्तारि धणुसयाइं चउस ट्ठि सयं च तह य धणुहाणं । फासे रसे य गंधे दुगुणा दुगुणा असण्णि त्ति ।। ४ ।। उणतीसजोयणसया चउवण्णा तह य होंति णायव्वा । चउरिदियस्स णियमा चक्खुप्फासो सुणियमेण* ।। ५ ।। उणसट्ठिजोहणसया अठ्ठ य तह जोयणा मुणेयव्वा । पंचिदियसण्णीणं चक्खुप्फासो सुणियमेण ।। ६ ।। अद्वैव धणुसहस्सा विसओ सोदस्स तह असण्णिस्स । इय एदे णायव्वा पोग्गलपरिणामजोएण ।। ७ ।। पासे रसे य गधे विसओ णव जोयणा मणेयव्वा । बारह जोयण सोदे चक्खुस्संद्धः पवक्खामि ।। ८ ।। सत्तेतालसहस्सा ब चेव सया हवंति तेवट्ठी । चक्खिदियस्स विसओ उक्कस्सो होइ अदिरित्तो ॥ ९॥ वह नोइन्द्रियअर्थावग्रह है। शंका- यहां क्षेत्रकी प्ररूपणा क्यों नहीं की ? समाधान नहीं, क्योंकि लोकके भीतर स्थित हुए श्रुत और अनुभूत विषयोंका भी नोइन्द्रियके द्वारा अर्थावग्रह होता है । इस कारणसे यहां क्षेत्रका नियम नहीं है। इसका जो आवारक कर्म है वह नोइन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय कर्म है । कहा भी है स्पर्शन, रसन और घ्राण इन्द्रियां क्रमसे चार सौ धनुष, चौंसठ धनुष और सौ धनुषके स्पर्श, रस और गन्धको जानती हैं। आगे असंज्ञी तक इन इन्द्रियोंका विषय दूना दूना है। चतुरिन्द्रिय जीवके चक्षु इन्द्रियका विषय नियमसे उनतीस सौ चौवन योजन है । पंचेन्द्रिय असंज्ञी जीवके चक्षु इन्द्रियका विषय उनसठ सौ आठ योजन जानना चाहिये । असंज्ञी जीवके श्रोत्र इन्द्रियका विषय आठ हजार धनुष है। यह सब विषय पुद्गलोंकी विविध पर्यायोंके निमित्तसे जानना चाहिये ।। ४-७॥ ____ संज्ञी पचेन्द्रिय जीवके स्पर्शन, रसन और घ्राणका विषय नौ योजन तथा श्रोत्र इन्द्रियका विषय बारह योजन जानना चाहिये । चक्षु इनद्रियका विषय आगे कहते हैं। चक्ष इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय संतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजनसे कुछ अधिक है ॥ ८-९॥ विशेषार्थ- यहां व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रहके स्वरूप, भेद और उनके आवरण कर्मोका * अ-आ-काप्रतिष ' अत्थाण ', ताप्रती · अत्था (द्धा) ण ' इति पाठः। 8 अ आप्रत्योः ' सुदाणभूदेसु दव्वेसु लोगंतरि ', ताप्रती · सुदाणभूदेसु लोगंतरि (रे) ' इति पाठः 1 * प्रतिषु ' मुणियणेण' इति पाठ:1* अ-आप्रत्योः चक्खुस्सुई . काप्रती 'चक्खुस्सुदं इति पाठः। . अ-आ-काप्रतिषु · तेवढा ' इति पाठः1 अप्रतो । उकस्सा होइ अओरित्ता', आ-काप्रत्योः । उक्कस्सा होइ अदिरित्तो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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